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84... जैन मुनि की आहार संहिता का समीक्षात्मक अध्ययन
भिक्षावृत्ति के कारण अकर्मण्यता या श्रम नहीं करने की प्रवृत्ति पनपती है। कुछ व्यक्ति तो शारीरिक दृष्टि से समर्थ होकर भी श्रम न करना पड़े इस उद्देश्य से भिक्षावृत्ति के द्वारा अपना जीवन यापन करते हैं। इस प्रकार भिक्षावृत्ति अकर्मण्यता और श्रम के प्रति उदासीनता का भाव जागृत करती है। यह वाक्य एक दृष्टि से उचित है कि भिक्षावृत्ति को प्रोत्साहन देने पर समाज में अकर्मण्यता की वृद्धि होती है। लोग श्रम करने से जी चुराने लगते हैं किन्तु जहाँ तक जैन मुनि का प्रश्न है वह पराश्रित जीवन नहीं जीता है। भोजन को छोड़कर शेष सभी कार्य उसे स्वयं करने पड़ते है। यहाँ तक कि वह न तो किसी वाहन का प्रयोग कर सकता है और न ही दूसरों से अपने शरीर की सेवा करवा सकता है। हमेशा अप्रमत्त रहते हुए अपने सभी कार्य उसे स्वयं करने के लिए कहा गया है, इसी के साथ गाँव-गाँव में जाकर नैतिक चेतना जागृत करने का दायित्व भी उसे दिया गया है। अत: उसके लिए अकर्मण्यता का प्रश्न ही नहीं उठता। __जैन मनि भिक्षावृत्ति इसलिए नहीं करता कि उसे श्रम नहीं करना पड़े अपितु वह भिक्षावृत्ति इसलिए करता है कि भोजन के निर्माण आदि में जो षट्जीवनिकाय के जीवों की हिंसा होती है, उससे बच सकें। मुनि को यह भी कहा गया है कि वह भिक्षा में रूखा, सूखा जैसा भी भोजन मिले उसे पाकर संतुष्ट रहे। यदि उसे स्वयं को भोजन बनाने की अनुमति दी जाए तो वह सदैव अपना मनोवांछित भोजन बनाने का प्रयत्न करेगा। इससे न केवल वह जीव हिंसा का भागी होगा अपितु अपने रसनेन्द्रिय पर संयम भी नहीं रख सकेगा। भोजन तैयार करने के लिए उसे अनेक प्रकार के साधन जुटाने पड़ेंगे। इससे उसमें परिग्रह वृत्ति का विकास होगा और साधना निर्बल बनेगी। भोजन सामग्री की प्राप्ति के लिए उसे धन की आवश्यकता भी होगी। यहाँ भी एक ओर गृहस्थों पर भार बनेगा तो दूसरी ओर उसमें भविष्य के लिए संचय वृत्ति का भी विकास होगा जो उसकी साधना के लिए उचित नहीं है।
इस प्रकार जैन मुनि के लिए भिक्षावृत्ति का निषेध अनेक कठिनाइयों का जनक होगा। भोजन सामग्री के लिए अर्थ जुटाने, उपलब्ध अर्थ से भोजन सामग्री खरीदने और उसके निर्माण आदि क्रियाओं में ही उसका समय चला जायेगा फिर वह कब और कैसे साधना कर पायेगा? अत: हमारी दृष्टि में भिक्षावृत्ति का निषेध उन्हीं संदर्भो में उचित होगा, जिनसे अकर्मण्यता और कमजोरी की प्रवृत्ति का विकास हो।