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वर्तमान युग में भिक्षाचर्या का औचित्य एवं उसके नियमोपनियम ...75 मानकर वह नया आहार तैयार करवा सकता है। परिणामत: इस आरंभ-समारंभ के दोष का अधिकारी मुनि बनता है। अतएव गोदोहिक वेला में अथवा जब भोजन बन रहा हो तब साधु-साध्वी को आहारार्थ नहीं जाना चाहिए।43 ___ बंद द्वार वाले गृहों में आहारार्थ प्रवेश का निषेध- जैनाचार्यों ने गृह स्वामी की आज्ञा लिये बिना बन्द द्वार वाले गृहों में भी मुनि को आहारार्थ जाने का निषेध किया है। यदि अनुज्ञा प्राप्त हो जाये तो उन द्वारों को प्रतिलेखित किये बिना न तो खोलें और न उसमें से होकर प्रवेश करें एवं निकलें।44
दोष- बन्द द्वार को खोलकर अकस्मात घर में प्रवेश करने से अनेक प्रकार के दोषों की संभावना होती है। गृहस्थ के घर की महिलाएँ अस्त-व्यस्त स्थिति में हो तो गृह मालिक को और उसके परिवार जनों को नाराजगी हो सकती है, आक्रोश आ सकता है। साधु को अचानक गृह में प्रवेश करते हुए देखकर उन्हें चोर आदि की शंका हो सकती है और साधु के प्रति अविश्वास पैदा हो सकता है। किसी वस्तु के गुम होने पर साधु पर दोषारोपण भी किया जा सकता है। यदि दरवाजा खोलते समय कोई कुत्ता आदि घुस जाये और नुकसान कर बैठे तो साधु पर आरोप आ सकता है, उन्हें उपालम्भ भी दिया जा सकता है। अतएव उत्सर्गत: जैन मुनि को बन्द द्वार खोलकर घरों में प्रवेश नहीं करना चाहिए किन्तु जिस घर में रोगी, नव दीक्षित या आचार्य आदि के योग्य पथ्य मिलना संभव हो या अन्य कोई विशेष कारण हो तो वहाँ मुनि को बन्द द्वार पर खड़े होकर आवाज लगानी चाहिए। उसके पश्चात दरवाजा खुलने पर गृह में प्रवेश करना चाहिए।45
भिक्षा के योग्य-अयोग्य स्थान - जैन धर्म जातिवाद में विश्वास नहीं करता है। जन्मना कोई भी व्यक्ति उच्च या नीच नहीं होता है। उसकी उच्चता या निम्नता का परिमाप उसके आचार-विचार की श्रेष्ठता से होता है। उत्तराध्ययनसूत्र में कहा गया है “साक्षात तप की विशिष्टता देखी जाती है जाति की विशेषता नहीं होती जैसे कि चाण्डाल कुलोत्पन्न हरिकेशी मुनि कितने ऋद्धि सम्पन्न थे।"46
इस सिद्धान्त के अनुसार जिन कुलों का आचार-विचार सात्विक, नैतिक और शिष्टजन सम्मत है तथा जिनकी वृत्ति अजुगुप्सित और अगर्हित है उन