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वर्तमान युग में भिक्षाचर्या का औचित्य एवं उसके नियमोपनियम ...73 जाए तो उसे पाने के लिए परस्पर वाक् युद्ध एवं मुष्टि-दण्डादि का प्रहार भी हो सकता है यह भी बाह्य संघर्ष है। एक-दूसरे के प्रति द्वेष, मनमुटाव या घृणा होना आभ्यन्तर संघर्ष है।
कहने का आशय यह है कि संखडी का आहार अशुद्ध एवं आधा कर्मादि दोष से युक्त होता है। इसी के साथ अपरिमित मात्रा में स्वादिष्ट भोजन का सेवन करने से संक्रामक रोग, स्वास्थ्य हानि, मान हानि, कलह आदि की पूर्ण संभावनाएँ रहती है अतएव संखडी स्थानों पर भिक्षार्थ नहीं जाना चाहिए।39
राज भवन में आहारार्थ जाने का निषेध - तीर्थंकरों ने जैन मनि के लिए राजपिण्ड लेने का निषेध किया है। इसलिए इन कुलों में भिक्षार्थ नहीं जाना चाहिए। यहाँ राज पिण्ड शब्द चक्रवर्ती, बलदेव, वासुदेव, माण्डलिक राजा, जागीरदार एवं कोतवाल आदि तथा राजवंशस्थ (राजा के मामा, काका आदि) के निमित्त बने हुए भोजन के सम्बन्ध में है।40
दोष- राजपिण्ड निषेध का मुख्य कारण यह है कि राजभवन एवं राजमहल आदि में लोगों का आवागमन, हाथी-घोड़े आदि सवारियों का आना जाना बहुतायत से होता रहता है जिससे साधु-साध्वी को आने-जाने में कठिनाई हो सकती है, किसी तरह का खतरा पैदा हो सकता है। ऐसे स्थानों पर ईर्यासमिति का पालन भी भलीभाँति नहीं होता है। इसके अतिरिक्त राजघरानों में कई प्रकार के गृह कलह एवं कुटनीति चलती रहती है। गुप्तचरों का छद्मवेश में आना-जाना होता रहता है इसलिए संभव है कि वहाँ जाने पर मनि को भी गुप्तचर मानकर संताप दिया जाए। राजघरानों में लगभग गरिष्ठ और पौष्टिक आहार तैयार किया जाता है जो मुमुक्षु आत्माओं के लिए संयम विराधना का कारण बनता है, अतएव इन कुलों में आहारार्थ नहीं जाना चाहिए।41 - यहाँ यह जानना भी आवश्यक है कि राजकुल से समस्त राजपिण्डों का निषेध नहीं है। आचारांगसूत्र के द्वितीय श्रुतस्कन्ध में उग्रकुल, भोगकुल, इक्ष्वाकुकुल आदि बारह कुलों से आहार लेने का स्पष्ट उल्लेख है। वस्तुत: जहाँ किसी भी प्रकार के अनिष्ट की संभावना हो, संयम और आत्म विराधना का संकट खड़ा हो, उन राजकुलों में आहारार्थ नहीं जाना चाहिए। जैन शास्त्रों में यह उल्लेख आता है कि गणधर गौतम अतिमुक्त राजकुमार के यहाँ भिक्षार्थ गये थे। इससे पूर्णतया स्पष्ट हो जाता है कि यह निषेध सापेक्ष है सार्वत्रिक नहीं।