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62... जैन मुनि की आहार संहिता का समीक्षात्मक अध्ययन
जम जाती है। वे अन्दर से सड़ जाती हैं तो उनमें लट, घनेरियाँ आदि कीड़े पड़ जाते हैं। ऐसी गंदी और सड़ी-गली चीजों का सेवन करने से हिंसा के अतिरिक्त साधु-साध्वियों को अनेक बीमारियाँ होने की संभावना भी रहती है।
• जिनमें खाने का अंश कम और फेंकने का भाग अधिक हो इस तरह के फल एवं वनस्पतियाँ जैसे- अनानास, सेहजन फली, तेन्दु, बिल्ब फल, गन्ने के टुकड़े और सेमल की फली आदि मुनि ग्रहण न करें।
इनके निषेध का कारण यह है कि जैन मुनि त्रिकरण - त्रियोग पूर्वक हिंसा के त्यागी होने से जो वस्तुएँ त्रस जीवों के वध से निष्पन्न हो इस तरह की वस्तुओं का उपयोग कभी भी नहीं करते ।
जैन मुनि उस तरह के पदार्थों का भी सेवन नहीं करते जिसमें पहले, तत्काल, पीछे या लेते समय किसी भी एकेन्द्रिय जीव की विराधना हो, अनानास आदि फल के सेवन में एकेन्द्रिय जीवों की साक्षात हिंसा होती है।
• जैन श्रमण प्यास बुझाने के लिए अचित्त जल का ही उपयोग करते हैं। आचारांगसूत्र में इक्कीस प्रकार का प्रासुक और एषणीय पानी साधु-साध्वियों के लिए ग्राह्य बताया है किन्तु तत्सम्बन्धी चावल, आटा या गुड़ आदि के घड़े का तत्काल धोया हुआ पानी हो तो साधु उसे ग्रहण न करें।
जब तक किसी भी तरह के धोवन पानी का वर्ण, गन्ध, रस आदि परिवर्तित नहीं होता, तब तक वह सचित्त कहलाता है। स्वभावतः यह परिवर्तन अन्तर्मुहूर्त काल में होता है 1 25
आहार गवेषणा सम्बन्धी नियम- सामान्यता श्रमण के लिए एक बार आहार करने का विधान है किन्तु दशवैकालिक रचयिता के अनुसार पर्याप्त आहार न मिलने और क्षुधा निवारण न होने पर अधिक बार भी भिक्षाटन कर सकते हैं।
• जिस गाँव में भिक्षा का जो समय हो उसी काल में भिक्षा के लिए प्रस्थान करें। अकाल में भिक्षाटन करने से मानसिक असन्तोष होता है।
• आगम परम्परा के अनुसार भिक्षाटन करने के बाद भी शुद्ध आहार की प्राप्ति न हो तो मुनि खेद नहीं करे अपितु यह सोचकर सन्तुष्ट होना चाहिए कि मुझे अनायास ही तपश्चर्या का लाभ मिल गया है।
भिक्षार्थ गमन करने वाला साधु कहीं भी न बैठें और न खड़े रहकर धर्म
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