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वर्तमान युग में भिक्षाचर्या का औचित्य एवं उसके नियमोपनियम ...51 असभ्य शब्द न बोलें इससे अन्तराय होता है।
34. अतिथि संविभाग व्रत लाभकारी है। पड़गाहन के लिए द्वार पर प्रतीक्षा करने से संपूर्ण आहार का लाभ मिल जाता है। प्रतीक्षा के बाद भी मुनि भगवन्त नहीं आये तो संक्लेश नहीं करना चाहिए, प्रत्युत उनका आहार निरंतराय हो, ऐसी भावना भानी चाहिए। भिक्षाचर्या (गवेषणा) सम्बन्धी मर्यादाएँ ___ अर्हत परम्परा के साधु-साध्वी भिक्षा सम्बन्धी आचार नियमों का सुविशुद्ध रूप से अनुपालन कर सकें, इस दृष्टि से ओघनियुक्तिकार ने 11 द्वारों का उल्लेख किया है जो निम्नोक्त हैं16
1. स्थान - भिक्षाग्राही मुनि शास्त्र नियमानुसार आहार लेते समय तीन स्थानों का वर्जन करें- 1. आत्मोपघाती 2. संयमोपघाती और 3. प्रवचनोपघाती। जहाँ गाय आदि पशुओं के बैठने-रहने का स्थान है वहाँ खड़े होकर भिक्षा लेना आत्मोपघाती कहलाता है, क्योंकि वहाँ गाय आदि पशुओं के उपद्रव होने की संभावना रहती है, कदाच पशु क्रोधाविष्ट हो तो आत्म विराधना हो सकती है।
जहाँ सचित्त पृथ्वी, पानी आदि रहे हुए हो वहाँ खड़े होकर आहार लेना अथवा जहाँ खड़े होकर आहार लेने से ऊपर या नीचे सचित्त फल आदि का स्पर्श हो रहा हो वहाँ भिक्षा लेना संयमोपघाती कहलाता है क्योंकि ऐसे स्थान पर खड़े रहने से जीव हिंसा की संभावना रहती है, उससे संयम की विराधना होती है।
अशचि के स्थान पर खड़े होकर भिक्षा लेना प्रवचनोपघाती कहलाता है। इससे जिन शासन की निन्दा और धर्म की हीलना होती है अत: मुनि इन तीन स्थानों पर खड़े होकर आहार ग्रहण नहीं करें।
2. दायक - भिक्षाग्राही मुनि शास्त्र निषिद्ध 20, 29 या 40 व्यक्तियों के हाथ से भिक्षा नहीं लें।
3. गमन - यदि दाता आहार देने के लिए पाकशाला (रसोई) आदि में आना-जाना करे तो मुनि उसकी गमन क्रिया का निरीक्षण करें। यदि दाता अयतना पूर्वक चल रहा हो तो भूमि पर रहे हुए जीवों की हिंसा हो सकती है, ऊपर में वृक्षादि हो तो डालियों (वनस्पति जीवों) को कष्ट पहुँच सकता है, तिर्यक दिशा में छोटे बालक आदि का संस्पर्श हो सकता है परिणामस्वरूप उस