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श्रमण का स्वरूप एवं उसके विविध पक्ष... 27
जन्म की माँ दूसरे जन्म में भगिनी हो जाती है, भगिनी भार्या हो जाती है, स्वामी दास और दास स्वामी हो जाता है, ऐसा चिन्तन करना संसार भावना है।
लाभ - इस अनुचिन्तन से निर्वेद भाव, विराग उत्पन्न होता है तथा जीव संसार के भय का नाश करने वाले और वास्तविक सुख देने वाले जिन वचनों की ओर उन्मुख होता है।
4. एकत्व भावना - यह जीव अकेला उत्पन्न होता है और अकेला ही मरता है। अपने शुभाशुभ कर्मों का सञ्चय भी यह अकेला करता है और उन्हें भोगता भी अकेला है। मृत्यु के समय कोई भी साथ नहीं चलता है । स्त्री विलाप करती हुई घर के कोने में बैठ जाती है, माता घर के दरवाजे तक पहुँचाती है, स्वजन और मित्रजन श्मशान तक साथ चलते हैं, शरीर भी चिता में आग लगने पर भस्मीभूत हो जाता है। प्राणी अकेला ही अपने शुभाशुभ कर्मों के साथ परलोक गमन करता है, इस प्रकार का अनुचिन्तन करना संसार भावना है।
लाभ - इस भावना से स्वजनों के प्रति रागानुबंध और घरजनों के प्रति द्वेषानुबंध छिन्न हो जाता है । निःसंगता का गुण प्रकट होता है। इस नि:संगता से मुक्तिपथ प्रशस्त होता है।
5. अन्यत्व भावना-जगत के समस्त पदार्थों से अपने को अलग मानना और उस भिन्नता का बार-बार विचार करना अन्यत्व भावना है, जैसे शरीर अन्य है, मैं (आत्मा) अन्य हूँ। शरीर इन्द्रिय ग्राह्य है, मैं अतीन्द्रिय हूँ। शरीर अनित्य है, मैं नित्य हूँ।
शरीर जड़ है, मैं चेतन हूँ। शरीर मूर्त है, आत्मा अमूर्त है । शरीर सादि है, आत्मा अनादि है। जन्म, जरा, मृत्यु, रोग, भोग, ह्रास और वृद्धि आत्मा के नहीं होते हैं ये तो कर्म के परिणाम हैं। संसार में परिभ्रमण करते हु मैंने लाखोंलाखों शरीर प्राप्त कर लिये हैं किन्तु मैं वही हूँ और उन सबसे भिन्न हूँ। इस प्रकार 'आत्मा भिन्न, शरीर भिन्न' का चिन्तन करना ।
लाभ - इस अनुचिन्तन से दैहिक - ममत्व विच्छिन्न होता है और निःश्रेयस प्राप्ति का प्रयत्न सफल होता है।
6. अशुचि भावना - शरीर की अशुचिता और विनाशशीलता का चिन्तन करना अशुचि भावना है। जैसे यह शरीर रज और वीर्य जैसे घृणित पदार्थों के संयोग से बना है। यह दुर्गन्धित मल-मूत्र से पूरित, सड़न - गलन - विध्वंसन