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26...जैन मुनि की आचार संहिता का सर्वाङ्गीण अध्ययन भावनाविहीन धर्म शून्य है।
जैनाचार्यों ने भावनाओं को मोक्ष का सोपान कहा है। व्यक्ति के मन पर अन्तर्भावों का विशेष प्रभाव पड़ता है। 'मन एव मनुष्याणां कारणं बन्धमोक्षयोः' 'यादृशी भावना यस्य सिद्धिर्भवति तादृशी'-इन उक्तियों से यह जाना जा सकता है कि मानसिक क्रियाओं का हमारे जीवन पर कितना अधिक असर होता है। परमार्थत: व्यक्ति के जीवन निर्माण में उसके विचारों की प्रधानता होती है।
जैन धर्म में जीवन शुद्धि के लिए भावनाएँ या अनुप्रेक्षाएँ बारह कही गयी हैं- 1. अनित्य 2. अशरण 3. संसार 4. एकत्व 5. अन्यत्व 6. अशुचि 7. आश्रव 8. संवर 9. निर्जरा 10. धर्म 11. लोक और 12. बोधिदुर्लभ भावना।101
1. अनित्य भावना- संसार के प्रत्येक पदार्थ को अनित्य एवं नाशवान मानना अनित्य भावना है। इस जगत में सभी वस्तुएँ परिवर्तनशील हैं। धन, सम्पत्ति, कुटुम्ब, परिवार, अधिकार आदि का संयोग अनित्य है। यह जीवन कमल-पत्र पर गिरी हुई ओस-बिन्दु के समान अल्पकालीन है। यह शरीर रोगों का घर है, यौवन के साथ बुढ़ापा जुड़ा हुआ है। लक्ष्मी सन्ध्या के बादलों की तरह अस्थिर है। प्रत्येक वस्तु के स्वभाव में विनाशशीलता भी निहित है तथा संयोग के साथ वियोग लगा हुआ है, ऐसा चिन्तन करना अनित्य भावना है।
लाभ-इस भावना का अनुचिन्तन करने से पदार्थजन्य एवं व्यक्तिजन्य आसक्ति भाव घट जाता है और वस्तु या व्यक्ति का वियोग होने पर दुःख नहीं होता है।
2. अशरण भावना- इस संसार में कोई शरणदाता नहीं है, जैसे सिंह से आहत मृग शिशु के लिए कहीं शरण नहीं है, वैसे ही जन्म, जरा, व्याधि, मृत्यु आदि से समुत्थित दुःखों से आहत प्राणी के लिए संसार में कोई शरण नहीं है, ऐसा चिन्तन करना अशरण भावना है।
लाभ-अशरण भावना करने वाला साधक किसी से सुख और रक्षा की आशा नहीं करता है, उसकी धर्म पर दृढ़ श्रद्धा हो जाती है और अर्हत प्रज्ञप्त धर्म की शरण स्वीकार कर लेता है।
3. संसार भावना- यह संसार अनगिनत दुःखों से भरा हुआ है। यहाँ जन्म-मरण, रोग-बुढ़ापा, संयोग-वियोग, शीत-उष्ण सभी कुछ दु:खमय है, जिसमें प्राणी क्लेश को प्राप्त हो रहे हैं। इस संसार का स्वरूप विचित्र है। एक