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20...जैन मुनि की आचार संहिता का सर्वाङ्गीण अध्ययन
5. कायक्लेश-शरीर को उत्तम रीतिपूर्वक कष्ट पहुँचाना कायक्लेश तप है। यह तप अनेक प्रकार से होता है जैसे-उत्कटक, वीरासनादि आसनों का सेवन करना, लोच करना, विहार करना, शरीर की शोभा-शुश्रुषा का त्याग करना आदि।
6. प्रतिसंलीनता-प्रतिसंलीनता का अर्थ है-गोपन करना। भगवतीसूत्र में यह तप चार प्रकार का बताया गया है/4____ (i) इन्द्रिय प्रतिसंलीनता-शुभाशुभ विषयों में राग-द्वेष त्याग कर इन्द्रियों को वश में करना, इन्द्रिय प्रतिसंलीनता है।
(ii) कषाय प्रतिसंलीनता-क्रोधादि चार कषायों का उदय न होने देना और उदय में आए हुए कषायों को विफल करना, कषाय प्रतिसंलीनता है।
(iii) योग प्रतिसंलीनता-मन, वचन, काया के अशुभ व्यापारों को रोकना और शुभ व्यापारों को उदय में लाना, योग प्रतिसंलीनता है। __(iv) विविक्त शय्यासनता-स्त्री, पशु, नपुंसक से रहित एकान्त स्थान में रहना, विविक्त शय्यासनता है।
उक्त छह प्रकार के तप मुक्ति प्राप्ति के बाह्य अंग हैं क्योंकि इनका मुख्य प्रभाव शरीर पर पड़ता है तथा इन तपों को करने वाला साधक भी लोक में तपस्वी रूप में प्रसिद्ध हो जाता है।
जिस तप का सम्बन्ध आत्मा के भावों से हो, उसे आभ्यन्तर तप कहते हैं। यह तप भी छह प्रकार का है।5___ 1. प्रायश्चित्त- प्राय: का अर्थ है-पाप और चित्त का अर्थ है-शुद्धि।
जिस अनुष्ठान से पाप की शुद्धि हो उसे प्रायश्चित्त कहते हैं अथवा जिससे मूलगुण और उत्तरगुण विषयक अतिचारों से मलिन आत्मा शुद्ध हो, वह प्रायश्चित्त तप है।
2. विनय-सम्माननीय गुरुजनों के आने पर खड़ा होना, हाथ जोड़ना, उन्हें आसन देना, उनकी सेवा-शुश्रुषा आदि करना विनय कहलाता है।
3. वैयावृत्य-धर्म साधना के लिए गुरु, तपस्वी, रोगी, नवदीक्षित आदि को विधिपूर्वक आहारादि लाकर देना और संयम पालन में यथाशक्ति सहायता करना वैयावृत्य है।
4. स्वाध्याय-शास्त्रसम्मत काल में आगमों का अध्ययन-अध्यापन करना स्वाध्याय है। स्वाध्याय पाँच प्रकार से होता है-गुरु मुख से पाठ लेना, पूछना,