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श्रमण का स्वरूप एवं उसके विविध पक्ष...13
दस यति धर्म _ 'धर्म' शब्द धू-धारणे धात् से निष्पन्न है। जो धारण करता है अथवा दुर्गति में जाते हुए प्राणियों को बचाता है, वह धर्म है। जैन साहित्य में कई दृष्टियों से धर्म शब्द पर चिन्तन किया गया है। यहाँ धर्म का तात्पर्य मुनि जीवन को ऊपर उठाने वाले तात्त्विक नियमों से है। वे तत्त्व दस बतलाये गये हैं38___ 1. क्षान्ति-क्रोध नहीं करना 2. मार्दव-जाति या कुल आदि का अहंकार नहीं करना 3. आर्जव-सरलता रखना, माया न करना 4. मुक्ति- लोभ नहीं करना 5. तप-अनशन आदि बारह प्रकार का तपश्चरण करना 6. संयम-हिंसा आदि से निवृत्त होना 7. सत्य-सत्य भाषण करना अथवा कथनी-करनी में समानता रखना 8. शौच-संयम धर्म में किसी प्रकार का दूषण नहीं लगाना 9. आकिंचन्य-परिग्रह नहीं रखना 10. ब्रह्मचर्य-ब्रह्मचर्य का पालन करना।
तुलना- ऐतिहासिक दृष्टि से दस यति धर्म का प्राथमिक उल्लेख आचारांग एवं स्थानांगसूत्र39 में प्राप्त होता है। इसके पश्चात यह वर्णन समवायांगसूत्र40 में उपलब्ध होता है। आचारांगसूत्र में आठ का ही उल्लेख है। तदनन्तर श्वेताम्बर परम्परामूलक स्थानांगवृत्तिन आवश्यक हरिभद्रीयावृत्ति42, आवश्यक चूर्णि43, तत्त्वार्थसूत्र, प्रवचनसारोद्धार45, नवतत्त्वप्रकरण46 आदि ग्रन्थों में तथा दिगम्बर परम्परा के द्वादशानुप्रेक्षा, कार्तिकेयानुप्रेक्षा आदि ग्रन्थों में परिलक्षित होता है। इस प्रकार श्वेताम्बर और दिगम्बर दोनों ही परम्पराओं के साहित्य में यति धर्म के दस प्रकारों का उल्लेख है। ___ इनके नाम एवं क्रम में कुछ अन्तर अवश्य हैं किन्तु प्रचलित परम्परा में तत्त्वार्थसूत्र का अनुकरण किया जाता है। अत: यहाँ तत्त्वार्थसूत्र के अनुसार दस धर्म का निरूपण किया गया है। - यदि तुलनात्मक दृष्टि से विचार किया जाए तो इनमें नाम, क्रम एवं स्वरूप की अपेक्षा वैभिन्य है। स्थानांगसूत्र47, समवायांगसूत्र48 एवं आवश्यक हरिभद्रीय वृत्ति49 में उल्लेखित प्राचीन गाथा के अनुसार दस धर्मों के नाम एवं उनका क्रम इस प्रकार है-1. क्षमा 2. मुक्ति 3. आर्जव 4. मार्दव 5. लाघव 6. सत्य 7. संयम 8. तप 9. त्याग और 10. ब्रह्मचर्य।
स्थानांग अभयदेव वृत्तिः, तत्त्वार्थसूत्र प्रवचनसारोद्धार62 में दस धर्मों के नाम एवं उनका क्रम इस प्रकार प्रस्तुत है