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।...जैन मुनि की आचार संहिता का सर्वाङ्गीण अध्ययन पालन में कितनी उपयोगी हो सकती है? ऐसे अनेक तथ्यों को उद्घाटित किया गया है।
दसवें अध्याय में साधु-साध्वी के लिए शयन योग्य पट्टा, फलक, तृण आदि ग्रहण करने सम्बन्धी नियमों एवं निर्देशों का वर्णन करते हुए इसकी औत्सर्गिक और वैकल्पिक विधियाँ बतायी गयी हैं। ___ ग्यारहवें अध्याय में शय्यातर सम्बन्धी विधि-नियमों की चर्चा की गई है। इसके अन्तर्गत शय्यातर का अर्थ, शय्यातर कौन, शय्यातर कब, शय्यातर की अवधि कहाँ तक, शय्यातर पिण्ड का निषेध क्यों, शय्यातर विधि की उपादेयता आदि विविध पक्षों को प्रस्तुत किया गया है।
बारहवें अध्याय में वर्षावास सम्बन्धी कई पहलुओं को उजागर किया गया है। उसमें मुख्यतया वर्षावास की स्थापना कब और कैसे की जाए, वर्षावास में विहार का निषेध क्यों, वर्षावास योग्य स्थान कैसा हो? इत्यादि विषयों पर शास्त्रीय दृष्टि से चर्चा की गई है।
तेरहवाँ अध्याय विहार चर्या से सम्बन्धित है। इसमें सामान्य रूप से विहार के प्रकार, पाद विहारी मुनि के प्रकार, विहार आवश्यक क्यों, विहार के प्रयोजन, एकाकी विहार का निषेध क्यों, एकाकी विचरण से लगने वाले दोष, गीतार्थ मुनि द्वारा एकाकी विहार के हेतु आदि विधि-नियमों की सम्यक् विवेचना की गई है।
चौदहवें अध्याय में पाँचवीं परिष्ठापनिका समिति की चर्चा स्थण्डिल विधि के रूप में की गई है। जिसमें मुख्य रूप से मल-मूत्र का परिष्ठापन करने हेतु 1024 प्रकार की भूमियों का प्रतिपादन करते हुए उनमें मात्र एक प्रकार की भूमि शुद्ध बताई गई है शेष भूमियों का उपयोग शुद्ध भूमि के अभाव में दोष न्यूनता के क्रम से करने का उल्लेख किया गया है। कुछ भूमियाँ तो सर्वथा निषिद्ध कही गई हैं। __इसी के साथ स्थंडिल गमन का काल, स्थंडिल भूमि का निरीक्षण, अशुद्ध स्थंडिल भूमि के दोष आदि का भी तुलनात्मक एवं ऐतिहासिक विवरण प्रस्तुत किया है।