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जैन मुनि की आचार संहिता का सर्वाङ्गीण अध्ययन...xlvii
समस्या उत्पन्न कर दी है। खुला स्थान मिलना असंभव हो गया है। श्रमणाचार से सम्बन्धित अन्य आचार मर्यादाएँ जैसे- पैदल विहार के समय मौजे आदि का प्रयोग, विहार में स्थान एवं जीवन सुरक्षा आदि की समस्या इस तरह जो निरपेक्ष एवं निराश्रित जीवन पूर्व काल के साधु वर्ग जी सकते थे वह आज संभव नहीं
लगता।
इन सब परिस्थितियों के बावजूद श्रमणाचार का परिपालन स्वस्थ एवं तनावमुक्त जीवन जीने का राजमार्ग है । वैज्ञानिक दृष्टि से सात्त्विक भोजन, उबले हुए पानी का प्रयोग, बिना पदत्राण के पैदल विहार, चिंता रहित अपरिग्रही जीवन, श्वेत वस्त्रों का परिधान आदि नियम शारीरिक, मानसिक एवं प्राकृतिक समस्याओं के समाधान में महत्वपूर्ण अंग हैं। इस प्रकार श्रमणाचार एक दुष्कर साधना है, किन्तु आचरणीय एवं लाभदायी मार्ग है।
श्रमणाचार का सम्यक् अनुवर्त्तन योगत्रयी पर आधारित है - भक्ति योग, ज्ञान योग और कर्म योग। इन्हें क्रमशः उपासना, साधना एवं आराधना की संज्ञा दे सकते हैं। उपासना में अन्तःकरण को, साधना में मनः संस्थान को और आराधना में क्रियाकलापों को प्रमुखता दी जाती है।
जिस प्रकार श्वास-प्रश्वास, आकुंचन-प्रकुंचन, निमेष - उन्मेष आदि शारीरिक क्रियाएँ अनवरत रूप से निरन्तर चलती रहती हैं उसी प्रकार चेतना रूपान्तरण के उक्त तीनों पक्ष साधकीय जीवन के अभिन्न अंग होते हैं।
श्रमण जीवन सदाचार के अभ्यासवर्द्धन का प्रशस्त एवं श्रेष्ठ मार्ग है। यहाँ अन्तरंग विकास के पर्याप्त चरण उपलब्ध हैं। इस भूमिका पर आरूढ़ होकर यथासाध्य मानसिक और आध्यात्मिक शुद्धि की जा सकती है। इसी के साथ जीवन में मानवीय गुणों का उत्थान, सूक्ष्म चित्तवृत्तियों का विकास एवं ज्ञात दोषों या अवगुणों के निदान करने की यह अप्रतिम औषधि है।
उपासना आत्मा को परमात्मा के साथ जोड़ने का मार्ग है । उपासना का अर्थ है समीपता, निकटता । उपासना का प्रभाव तात्कालिक होता है जैसे ईंधन आग के जितना समीप पहुँचता है, उतना ही गर्म होता जाता है और अन्ततः वह स्वयं अग्निरूप बन जाता है। जैसे नाला नदी में, बूंद समुद्र में, नमक पानी