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________________ 394...जैन मुनि की आचार संहिता का सर्वाङ्गीण अध्ययन कि श्वेताम्बर साहित्य में इस संस्कार की मौलिक एवं आपवादिक दोनों तरह की विधियाँ पढ़ने को मिलती हैं। दिगम्बर परम्परा के भगवती आराधना एवं उसकी अपराजिता टीका आदि में शव परिष्ठापन सम्बन्धी क्रिया का उल्लेख नहीं मिलता है। सामान्यत: जो मुनि मृत्यु को निकट जानकर पादपोपगमन अनशन को स्वीकार कर लेता है, उनके लिए इन सब क्रियाओं की आवश्यकता नहीं होती। निर्यापक मुनि मृत मुनि की देह को वहीं विसर्जित कर वापस आ जाता है। यदि किसी मुनि का वसति में देहावसान हो जाए, तो उस समय कौनसी क्रिया करनी चाहिए? यह विधि प्राप्त नहीं होती है। फिलहाल जैन धर्म की श्वेताम्बर-दिगम्बर दोनों आम्नायों में अग्निसंस्कार की प्रथा ही विद्यमान है। वैदिक एवं बौद्ध साहित्य में इस विधि का कोई उल्लेख देखने में नहीं आया है। उपसंहार __ कोई मुनि भक्तप्रत्याख्यान आदि त्रिविध अनशन की आराधना करता हआ अथवा रुग्णादि अवस्था से ग्रसित हुआ अथवा आयु पूर्ण होने के कारण अचानक ही कालगत हो जाये तो उसे मुनिजनों द्वारा पूर्वप्रेक्षित भूमि पर सुविधिपूर्वक परिष्ठापित-विसर्जित करना महापरिष्ठापनिका कहलाता है। ____ यदि इस संस्कार की मूल अवधारणा एवं अस्तित्व को लेकर विचार किया जाए तो कहा जा सकता है कि आगम युग से नियुक्ति काल तक मुनि द्वारा शव परिष्ठापन और गृहस्थ द्वारा अंतिम संस्कार ऐसे दोनों उल्लेख प्राप्त होते हैं। यद्यपि गृहस्थ द्वारा अंतिम संस्कार किस प्रकार किया जाता था इसके स्पष्ट निर्देश तो प्राप्त नहीं हैं, किन्तु बृहत्कल्पभाष्य में इतना अवश्य कहा गया है कि मुनिवर्ग स्वयं शव को वहन कर स्थंडिल भूमि तक लेकर आते हैं। यदि वहाँ गृहस्थ को उपस्थित हुआ देख लें तो सामान्य रीति से मृतक को परिष्ठापित कर शरीर शुद्धि पूर्वक उपाश्रय में लौट आते हैं। यदि गृहस्थ न हो तो समान संस्तारक बनाकर विधिपूर्वक परिष्ठापित करते हैं। इस वर्णन में अग्निसंस्कार का तो स्पष्ट सूचन नहीं है किन्तु गृहस्थ का उल्लेख होने से हमें वही भासित होता है। इसके अनन्तर उत्तरवर्तीकाल में दोनों विधियों के स्पष्ट उल्लेख मिल जाते हैं। विधिमार्गप्रपा में मुनि द्वारा शव व्युत्सर्जन एवं गृहस्थ द्वारा अग्नि संस्कार दोनों का स्पष्ट निर्देश है यद्यपि शव परिष्ठापन को प्राथमिक स्थान दिया गया है।
SR No.006242
Book TitleJain Muni Ki Aachar Samhita Ka Sarvangin Adhyayan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSaumyagunashreeji
PublisherPrachya Vidyapith
Publication Year2014
Total Pages472
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & D000
File Size32 MB
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