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________________ महापरिष्ठापनिका (अंतिम संस्कार) विधि सम्बन्धी नियम...393 है। तदनन्तर 'तुम हमारे परिग्रह से मुक्त हुए और हम बढ़े हुए परिग्रह से संवृत्त हुए' ऐसा बुलवाकर मृतात्मा से अनुमति ली जाती है। • विधिमार्गप्रपादि में कायोत्सर्ग द्वार के अन्तर्गत तीन कल्प उतारने की विधि भी अतिरिक्त कही गई है। इसकी स्पष्ट चर्चा पूर्व में कर चुके हैं। आवश्यकनियुक्ति की हारिभद्रीय टीका में आचमन योग्य असंसृष्ट जल एवं शराव संपुट में केशर आदि चूर्ण कौन लेकर चलते हैं? कश संस्तारक कौन करता है? इत्यादि का स्पष्ट उल्लेख नहीं है जबकि विधिमार्गप्रपा में इन कृत्यों के लिए दंडधर एवं वाचनाचार्य- इन दो मुनियों का सुस्पष्ट उल्लेख किया गया है। इसमें दिशाबंध अर्थात मृतात्मा के अतीत काल के आचार्य आदि के नामोच्चारणपूर्वक उसे विसर्जित करने का भी निर्देश है। • प्राचीनसामाचारी, आचारदिनकर आदि में मृत श्रवण देह का केशर, कपूर आदि अथवा कुंकुम आदि द्वारा विलेपन करने तथा चोलपट्ट एवं चद्दर ओढ़ाने का उल्लेख है जो आवश्यकनियुक्ति आदि पूर्ववर्ती ग्रन्थों में पढ़ने को नहीं मिलता है। • आचारदिनकर में मृत साधु के समक्ष पाँच रत्न रखने का निर्देश किया गया है, जो वर्तमान परम्परा में भी देखा जाता है। इनका तात्विक रहस्य अन्वेषणीय है। आचारदिनकर के अध्ययन से यह भी अवगत होता है कि साधु-साध्वियों की मृत्यु होने पर सूतक, पिण्डदान एवं शोक आदि नहीं होते हैं। • परिष्ठापन सम्बन्धी कृत्यों को संपादित करने वाले साधु उपाश्रय के मुख्य द्वार पर चद्दर उतारकर सुवर्ण जल के छींटे लें तथा उपाश्रय के भीतर जाकर प्रासक जल से देह को प्रक्षालित करें। इस सम्बन्ध में विधिमार्गप्रपाकार का अभिमत अधिक औचित्यपूर्ण है। उन्होंने दैहिक अशुद्धि गाँव के बाह्य भाग में दूर करने का उल्लेख किया है। लोक व्यवहार में भी श्मशान तक जाने वाले पुरुष घर के बाह्य भाग में ही शरीर शुद्धि करते हैं। परिष्ठापन क्रिया से सन्दर्भित सामान्य वर्णन प्रवचनसारोद्धार में भी परिलक्षित होता है किन्तु वहाँ इसकी चर्चा उच्चार दिशा के प्रतिस्थापन के रूप में हुई है।45 यदि त्रिविध परम्पराओं के परिप्रेक्ष्य में विचार किया जाए तो ज्ञात होता है
SR No.006242
Book TitleJain Muni Ki Aachar Samhita Ka Sarvangin Adhyayan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSaumyagunashreeji
PublisherPrachya Vidyapith
Publication Year2014
Total Pages472
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & D000
File Size32 MB
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