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महापरिष्ठापनिका (अंतिम संस्कार) विधि सम्बन्धी नियम... 387
परिष्ठापक मुनि उसकी प्रदक्षिणा न दें अपितु जो मुनि जहाँ स्थित हैं उसे वहीं से प्रतिनिवृत्त हो जाना चाहिए । यदि प्रदक्षिणा कर लौटते हैं तो शव के उत्थान आदि दोष होने पर बाल-वृद्धों की विराधना होती है। भावार्थ यह है कि कदाचित शव उठ जाए तो वह बाल, वृद्ध आदि की विराधना कर सकता है | 26
14. कायोत्सर्ग द्वार - नियुक्तिकार एवं भाष्यकार के निर्देशानुसार पूर्वोक्त उत्थानादि दोष होने पर जो मुनि कांधिया बनकर एवं संस्तारक आदि कार्यों के लिए स्थंडिल भूमि पर गए हैं वे मृतक का व्युत्सर्जन करने के पश्चात उपाश्रय में आकर आचार्य के समीप परिष्ठापन में हुई अविधि एवं दोष निवारणार्थ कायोत्सर्ग करें। 27
लौटते
कुछ परम्पराओं के अनुसार उत्थान आदि दोष होने पर स्थंडिल भूमि से हुए जिनालय में चैत्यवंदन आदि करके शान्ति निमित्त अजितशान्तिस्तव पढ़ें अथवा विपरीत क्रम से तीन स्तुति कहें। उसके बाद आचार्य के सन्निकट पहुँचकर परिष्ठापन करते समय कोई अविधि हुई हो तो उसके लिए कायोत्सर्ग करें। यहाँ पूर्व आचरणा से रजोहरण को विपरीत क्रम से धारण करते हुए यानी डंडी को पीछे और दसिया को आगे की ओर रखते हुए गमनागमन की आलोचना करें। फिर उल्टे क्रम से चैत्यवंदन कर पुनः विधि पूर्वक चैत्यवंदन करें। जो श्रमण उपाश्रय में हैं वे मृतक के मल-मूत्रादि सम्बन्धी अशुद्धि को दूर कर वसति का प्रमार्जन करें ।
आचार्य जिनप्रभसूरि कायोत्सर्ग के संदर्भ में उत्थानादि दोष एवं शरीरादि अशुद्धि के निवारणार्थ तीन कल्प उतारने अर्थात तीन प्रकार से आचार शुद्धि करने का प्रतिपादन करते हैं। 28
प्रथम कल्प श्मशान सम्बन्धी - विधिमार्गप्रपा में वर्णित विधि के अनुसार मृत श्रमण का परिष्ठापन करने के पश्चात गीतार्थ मुनि और दंडधर, दोनों ही पूर्व निर्धारित स्थान में आकर थोड़े जल द्वारा श्मशान सम्बन्धी अशुद्धि को दूर करें। फिर जलपात्र (तिरपनी) और डोरी को वहीं पर परिष्ठापित कर दें। फिर दोनों ही तीन नमस्कारमन्त्र बोलकर एवं डंडे की स्थापना कर उसके समक्ष ईर्यापथ प्रतिक्रमण करें, शक्रस्तव द्वारा चैत्यवंदन करें और उवस्सग्गहरं स्तोत्र पढ़ें। उसके पश्चात शव परिष्ठापन करते समय कोई अविधि हुई हो तो तनिमित्त कायोत्सर्ग में चार लोगस्ससूत्र अथवा एक नमस्कारमन्त्र का चिंतन करें।