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महापरिष्ठापनिका (अंतिम संस्कार) विधि सम्बन्धी नियम...381 शव को मलिन वस्त्रों से ढंकने पर प्रवचन की अवज्ञा भी होती है। सम्यक्त्व
और प्रव्रज्या ग्रहण करने के इच्छुक व्यक्ति लौट जाते हैं, इसलिए नए और प्रमाणोपेत वस्त्र ही धारणीय है।10
4. कालद्वार- किसी सामान्य या रुग्ण साधु का निधन हो जाए तो उसका परिष्ठापन तुरन्त कर देना चाहिए, क्योंकि निष्कारण अधिक समय तक वसति में रखना उचित नहीं है। यह उत्सर्ग विधि है।
अपवादत: रात्रि में हिम वर्षा हो रही हो, चोरों या हिंसक जानवरों का भय हो, नगर के द्वार बन्द हों, मृतक मुनि अत्यन्त विख्यात हों, मृत्यु के पूर्व मासक्षमण तप आदि किए हुए हों, मृतक महान तपस्वी हों, किसी गाँव की ऐसी व्यवस्था हो कि वहाँ रात्रि में शव को बाहर नहीं ले जाया जाता हो अथवा मृतक के सम्बन्धियों ने पहले से ऐसा कह रखा हो कि हमको पूछे बिना मृतक को न ले जाया जाए- इन स्थितियों में शव को वसति में ही रखें।
* यदि सफेद वस्त्रों का अभाव हो, नगर प्रमुख अथवा राजा जनसमूह के साथ नगर में प्रवेश कर रहा हो अथवा नगर के बाहर जा रहा हो, उस स्थिति में शव का विसर्जन दिन में नहीं, रात्रि में करना चाहिए। • यदि पूर्वोक्त कारणों से शव को दीर्घ या अल्पकाल के लिए उपाश्रय में रखना पड़े तो वायु से शरीर अकड़ न जाए, इस हेतु कालगत होते ही उसके हाथ-पैरों को सीधा लम्बा फैलाकर मुँह और आँखों को संपुटित कर दें। मुखवस्त्रिका से मुख को ढंक दें। • मृतक के शरीर में किसी भूत-प्रेत का प्रवेश न हो जाए, एतदर्थ हाथ और पांव के दोनों अंगूष्ठों एवं अंगुली के बीच के पर्व में छोटा सा छेद कर दें अथवा हाथ-पैर के अंगठों को रस्सी से बाँध दें और अंगुली के बीच छेद कर दें, क्योंकि क्षत-विक्षत देह में भूत-प्रेतादि प्रविष्ट नहीं होते हैं। - इस प्रकार बंधनछेदन करने पर भी यदि शरीर व्यंतर अधिष्ठित हो जाए या कोई प्रत्यनीक देव मृत देह में प्रवेश कर उत्थित हो तो समीपस्थ मुनि पहले से ही एक पात्र में रखे गए मूत्र को बाएँ हाथ में लेकर उसका सिंचन करते हुए कहे-'बुज्झ-बुज्झ मा गुज्झगा! मुज्झ' -हे गुह्यक! सचेत हो, सचेत हो, मूढ मत हो। इसके उपरान्त भी कलेवर (प्रेतादि से अधिष्ठित होने के कारण) विकराल रूप दिखाए, डराए, चिल्लाए या भयंकर अट्टहास करे, तब भी गीतार्थ मुनि भयभीत न हों प्रत्युत निर्भीक होकर पूर्ववत मूत्र का आच्छोटन करते रहें।