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380...जैन मुनि की आचार संहिता का सर्वाङ्गीण अध्ययन करें। फिर भी वह स्वीकृति न दें तो मृतक के जो वस्त्र हैं, वे उसे देकर अनुमति लें। यदि उन वस्त्रों से वह संतुष्ट न हो तो दूसरे नए वस्त्र लाकर दें। यदि श्मशान रक्षक किनारी रहित वस्त्र लेना चाहे, तो उन्हें साधारण वचनों से आश्वस्त कर शव का परिष्ठापन करें। यह भी संभव न हो तो राजकुल से अनुमति लेकर एवं राजपुरुष को साथ लेकर श्मशान में शव का परिष्ठापन करें। जहाँ क्षेत्रीय स्थान अथवा श्मशान का अभाव हो वहाँ पृथ्वीकायिक आदि कायगत स्थान में विवेकपूर्वक “धर्मास्तिकायादि प्रदेश पर हम इस शव का परिष्ठापन करते हैं” मन में ऐसी विचारणा कर शव को परिष्ठापित करें, यही शुद्ध विधि है।
वर्तमान में शव परिष्ठापन की परम्परा लुप्त हो गई है। सहवर्ती मुनिगण उपाश्रय में ही मृत देह का परित्याग कर गृहस्थ को सुपुर्द कर देते हैं। तदनन्तर गृहस्थ द्वारा ख्याति प्राप्त या उच्च पदस्थ श्रमण-श्रमणी हो तो किसी विशेष स्थल पर तथा सामान्य हो तो श्मशान भूमि पर अग्नि संस्कार किया जाता है। ऐसी स्थिति में शव परिष्ठापन की समस्या उत्पन्न ही नहीं होती है। व्यवहारभाष्य आदि में जो कहा गया हैं वह पूर्वकाल की अपेक्षा से है।
3. अनन्तक द्वार- यदि मृतश्रमण के देह को परिष्ठापित करना हो तो उसके लिए तीन श्वेत वस्त्रों का संग्रह करें। भाष्यकार के मत से याचित तीन वस्त्र ढाई हाथ लम्बे, सफेद और सुगंधित होने चाहिए। एक वस्त्र से मृतक को ढकें। दूसरा वस्त्र मृतक के नीचे बिछाएं। तत्पश्चात मृतक को उन वस्त्रों सहित एक डोरी से बांध दें। फिर उस डोरी को ढंकने के लिए तीसरा वस्त्र उसके ऊपर डालें। सामान्यत: तीन वस्त्रों का उपयोग अवश्य होना चाहिए अन्यथा प्रायश्चित्त आता है और लोकापवाद भी होता है। आवश्यकता के अनुसार अधिक वस्त्रों का भी उपयोग किया जा सकता है।
प्रयोजन- शव को उज्ज्वल सफेद वस्त्रों से ढंकने आदि का जो विधान बतलाया है, उसके पीछे कई हेतु हैं। यदि मलिन वस्त्र से आच्छादित शव को ले जाते हुए धर्मविमुख लोग देख लें तो कह सकते हैं कि इसने इस भव में पाप किया है तो परलोक में भी दु:खी अवस्था को प्राप्त करेगा। सामान्यतया बाह्य वेशभूषा एवं क्रियाकलाप को देखकर लोगों की मानसिक विचारधारा तदनुरूप हो जाती है, अत: मलिन या रंग-बिरंगे वस्त्रों से शव को ढंकने का निषेध है।