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356... जैन मुनि की आचार संहिता का सर्वाङ्गीण अध्ययन
जलाकर कोयले आदि बना सकते हैं। इससे जो जीव हिंसा होती है उस दोष का भागी साधु बनता है तथा जीव हिंसा होने से संयम का उपघात ( हनन ) होता है, अतः मलोत्सर्ग हेतु औपघातिक स्थानों का सर्वथा परिहार करना चाहिए | 15 विषम भूमि के दोष
श्रमणाचार का सम्यक निरूपण करने वाले पंचवस्तुक ग्रन्थ में कहा गया है कि यदि मुनि मलोत्सर्ग हेतु विषम भूमि पर बैठता है और कदाचित शारीरिक असन्तुलन होने से घबरा जाये या गिरने का भय उत्पन्न हो जाये तो आत्मविराधना हो सकती है। साथ ही लघुनीति- बड़ीनीति का नीचे की ओर प्रवाह होने से छहकाय की विराधना होती है। छहकाय की विराधना से संयम विराधना भी होती है इसलिए समभूमि में मलोत्सर्ग करना चाहिए। 16 शुषिर (पोली) भूमि के दोष
आचार्य हरिभद्रसूरि कहते हैं कि घास आदि से ढँकी हुई खोखली (पोली) भूमि पर मलोत्सर्ग करने से नीचे रहे हुए सर्प, बिच्छू आदि जीवों के कारण आत्मोपघात होता है तथा मलोत्सर्ग से खोखले स्थान में रहे हुए त्रस - स्थावर जीवों का नाश होता है। इससे संयम की विराधना होती है तदर्थ स्थंडिल के लिए ठोस भूमि पर बैठना चाहिए। 17 चिरकालकृत भूमि के दोष
जो भूमियाँ जिस ऋतु आदि में जलाकर निर्जीव - अचित्त की गई हों, वे भूमियाँ उस ऋतु के समाप्ति तक अचित्त रहती हैं तत्पश्चात सचित्त हो जाती हैं। जैसे हेमन्त ऋतु में अचित्त की गई भूमि हेमन्त ऋतु में ही अचित्त रहती है, अन्य ऋतुओं में सचित्त हो जाती हैं।
जिस भूमि पर वर्षावास तक एक पूरा गाँव बसा हो, वह स्थान बारह वर्ष पर्यन्त अचित्त रहता है, उसके बाद सचित्त हो जाता है। इस तरह सचित्त भूमि पर मलोत्सर्ग करने से जीव हिंसा आदि का दोष लगता है। 18
अविस्तीर्ण भूमि के दोष
पंचवस्तुक ग्रन्थ में विस्तीर्ण भूमि जघन्य आदि के भेद से तीन प्रकार की कही गई है- जो भूमि चारों दिशाओं में एक हाथ तक अचित्त हो वह जघन्य स्थंडिल भूमि है। जो स्थान बारह योजन की परिधि तक अचित्त हो, वह उत्कृष्ट