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________________ 330... जैन मुनि की आचार संहिता का सर्वाङ्गीण अध्ययन गीतार्थ मुनि द्वारा एकाकी विहार के हेतु पूर्व चर्चा के अनुसार गीतार्थ मुनि आचार्य के साथ विहार करें, नवकल्पी मर्यादा से युक्त विहार करें, एकाकी विहार न करें, परन्तु ओघनियुक्ति में गीतार्थ मुनि के लिए विहार करने सम्बन्धी कुछ आपवादिक कारण भी बताये गये हैं । संभवतया इन कारणों में गीतार्थ मुनि एकाकी विचरण भी कर सकता है। वे कारण निम्न हैं-45 1. यदि अर्हत तीर्थंकरों की जन्मभूमि, दीक्षा भूमि, केवलज्ञान भूमि, निर्वाण भूमि, चमत्कारिक प्रतिमाओं, प्राचीन स्तूपों आदि देखने की इच्छा हो 2. संखडी (प्रीतिभोज) के लिए जाना हो 3. स्थान परिवर्तन हेतु आवश्यक रूप से जाना हो और 4. अनुकूल भोजन और उपधि की प्राप्ति करनी हो 5. दर्शनीय स्थलों को देखने हेतु जाना हो तो गीतार्थ मुनि एकाकी विहार कर सकता है। विहार क्षेत्र की मर्यादा जैन साधु की जीवनचर्या इतनी कठोर होती है कि वह स्वच्छंदता पूर्वक जहां-तहां परिभ्रमण भी नहीं कर सकता है। जैन साहित्य में मुनि की विहार सम्बन्धी सीमाएँ भी निर्धारित की गयी हैं। बृहत्कल्पसूत्र में कहा गया है कि साधु-साध्वी पूर्व दिशा में अंगदेश (जिसकी राजधानी चम्पानगरी है) से मगधदेश (जिसकी राजधानी राजगृह है ) तक, पश्चिम दिशा में स्थूणादेश तक, उत्तर दिशा में वत्सदेश (जिसकी राजधानी कौशाम्बी है) तक और दक्षिण दिशा में कुणालदेश (जिसकी राजधानी श्रावस्ती है) तक विचरण कर सकते हैं। वे इससे बाहर नहीं जा सकते। यदि उससे आगे जाना भी हो तो जहाँ ज्ञान, दर्शन, चारित्र की वृष्टि होती हो वहां जा सकते हैं। 46 उक्त क्षेत्रीय सीमाओं में विचरण करने का प्रयोजन यह है कि इन्हीं क्षेत्रों में तीर्थंकरों के जन्म, दीक्षा आदि कल्याणक होते हैं, भव्यजीव प्रतिबोध को प्राप्त होते हैं और तीर्थंकरों से धर्मश्रमण कर अपना संशय दूर करते हैं। इन प्रान्तों में साधु-साध्वियों को भक्त - पान एवं उपधि भी सुलभता से प्राप्त होती है और यहाँ के निवासी साधु-साध्वियों के आचार-विचार से परिचित होते हैं, अतः इन क्षेत्रों में ही विहार करना चाहिए | 47 इन्हें आर्यक्षेत्र भी कहा गया है। प्रज्ञापनासूत्र के अनुसार साढ़े पच्चीस आर्यदेश निम्न हैं-48
SR No.006242
Book TitleJain Muni Ki Aachar Samhita Ka Sarvangin Adhyayan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSaumyagunashreeji
PublisherPrachya Vidyapith
Publication Year2014
Total Pages472
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & D000
File Size32 MB
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