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________________ विहारचर्या सम्बन्धी विधि-नियम...329 भी उत्पन्न हो सकते हैं 9. वह अपने अपराधों की विशुद्धि भी नहीं कर सकता है, क्योंकि अपराध विशोधि प्रायश्चित्त द्वारा ही सम्भव है और वह अकेला किससे प्रायश्चित्त ग्रहण करे? 10. सूत्र पाठों के परावर्तनादि के बिना स्वाध्याय की उद्यमशीलता मंद हो जाती है 11. गुरु की आज्ञा से मुक्त होने के कारण उसका चारित्र दूषित हो जाता है या चारित्र से गिर जाता है 12. एकाकी मुनि विनय, वैयावृत्य आदि श्रामण्य जीवन की प्रवृत्तियों से अत्यन्त दूर हो जाता है 13. गृहस्थ संसर्ग के कारण उनकी जीवनचर्या से अधिक परिचित हो जाता है और 14. परिणामत: उसके ज्ञान, दर्शन और चारित्र में मलिनता आ जाती है। इस प्रकार अगीतार्थ मुनि को किसी भी स्थिति में अकेले विहार नहीं करना चाहिए।42 ____ मूलाचार में एकाकी विहार के दोषों का निरूपण करते हुए कहा गया है कि एकाकी विहार करने पर उसके गुरु का तिरस्कार होता है जैसे इस चारित्रहीन मुनि को किसने मूंड दिया है, ऐसा लोग कहने लगते हैं। इससे श्रुत परम्परा का विच्छेद होता है और जिनशासन में मलिनता आती है। एकल विहारी मुनि में मूर्खता, विह्वलता, कुशीलता और पार्श्वस्थ रूप दुर्गुण प्रवेश कर जाते हैं। ऐसा मुनि काँटे से, दूंठ से, मिथ्यादृष्टियों से, क्रोधी, श्वान, बैल, सर्पादि से, अन्यान्य हिंसक पशुओं से, म्लेच्छ जातीय लोगों से, विष से तथा अजीर्ण आदि अनेक आत्मघाती विपत्तियों से ग्रसित हो जाता है।43 ___ इसी क्रम में यह भी कहा गया है कि एकल विहारी मुनि के द्वारा जिनाज्ञा का उल्लंघन, अनवस्था, मिथ्यात्व सेवन, आत्मनाश और संयम विराधना- ये पाँच दोष उत्पन्न होते हैं। स्पष्ट है कि जो मुनि स्वच्छंद होकर एकाकी विचरण करते हैं वे सर्वप्रथम तीर्थंकर परमात्मा की आज्ञा का उल्लंघन कर पाप करते हैं। उन्हें देखकर अन्य भी कई मुनि इस तरह का आचरण करने लग जाते हैं। इससे अनवस्था दोष की उत्पत्ति होती है। जनसम्पर्क से सम्यक्त्वनाश होता है, उससे मिथ्यात्व के संस्कार प्रगाढ़ बनते हैं। परिणामत: आत्मा का हनन और संयम की विराधना भी होती है। इस प्रकार अन्य दोष भी संभवित है। अत: जिनकल्पी, विशिष्ट शक्ति एवं गुणों से युक्त मुनि के अतिरिक्त सामान्य, अल्पसामर्थ्यवान मुनियों को एकाकी विहार नहीं करना चाहिए।44
SR No.006242
Book TitleJain Muni Ki Aachar Samhita Ka Sarvangin Adhyayan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSaumyagunashreeji
PublisherPrachya Vidyapith
Publication Year2014
Total Pages472
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & D000
File Size32 MB
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