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308... जैन मुनि की आचार संहिता का सर्वाङ्गीण अध्ययन
उपसंहार
वर्षाकाल में एक स्थान पर रहना वर्षावास कहलाता है। वर्षावास का प्रारम्भ चन्द्रमास से माना गया है और वह मास श्रावण कृष्ण प्रतिपदा से शुरू होकर कार्तिक शुक्ल पूर्णिमा को समाप्त होता है । उत्सर्ग मार्ग यह है कि मुनि कार्तिक पूर्णिमा के पश्चात मिगसर कृष्णा प्रतिपदा को विहार कर दें। किन्हीं विशेष कारणों के बिना चातुर्मास पश्चात एक दिन भी उस स्थान पर न रहें। वर्षावास की यह मर्यादा क्षेत्रजन्य मोह, सुविधा पूर्ण स्थान की मूर्च्छा, गृहस्थ राग, अतिपरिचयवश अवज्ञा आदि के निवारण हेतु स्थापित की गई है। कदाचित चातुर्मास काल के पूर्ण होने के पश्चात वृष्टि के कारण मार्ग में हरियाली हो, जीव जन्तुओं की उत्पत्ति बनी हुई हो, मार्ग अवरुद्ध हो तो मृगशीर्ष माह के पन्द्रह दिन तक भी एक स्थान पर रुक सकते हैं, क्योंकि मुनि जीवन के सभी नियमोपनियम जीव रक्षा के उद्देश्य से हैं। अतः जीव रक्षा के निमित्त चातुर्मास समाप्ति के पश्चात भी पाँच-दस या पन्द्रह दिन तक और ठहरा जा सकता है। प्राय: इतने दिनों में तो मार्ग साफ हो जाते हैं, इसके बाद वहाँ नहीं ठहरना चाहिए।
यदि वर्षावास सम्बन्धी विधि-नियमों पर ऐतिहासिक दृष्टि से विचार किया जाये तो यह वर्णन सर्वप्रथम आचारचूला में परिलक्षित होता है। इस सूत्र में वर्षावास क्यों, वर्षावास कहाँ, वर्षावास काल आदि का सम्यक स्वरूप उल्लिखित है। इसके अनन्तर यह चर्चा सूत्रकृतांगसूत्र में दिखायी देती है। इसमें वर्षावास के जघन्य आदि प्रकार, वर्षावास में विहार करने के कारण आदि का प्रतिपादन है। तदनन्तर इस विषयक विवेचन दशाश्रुतस्कन्ध, कल्पसूत्र, बृहत्कल्प भाष्यादि में उपलब्ध होता है । इन ग्रन्थों में वर्षावास में विहार न करने के कारण, वर्षावास के कृत्य, वर्षावास कब इत्यादि विषयों पर प्रकाश डाला गया है। आगमेतर साहित्य में यह निरूपण नहींवत है। दिगम्बर मान्य भगवती आराधना टीका में इसकी सामान्य चर्चा की गई है। इस तरह वर्षावास सम्बन्धी विधि - नियम आचारचूला, स्थानांग, दशाश्रुतस्कन्ध, कल्पसूत्र, बृहत्कल्पभाष्य आदि में स्पष्ट रूप से बताये गये हैं ।