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282... जैन मुनि की आचार संहिता का सर्वाङ्गीण अध्ययन
में ठहरना है वहाँ पहले दिन इन्द्र महाराजा का, दूसरे दिन नगर सेठ का और तीसरे दिन स्थानीय जैन संघ के एक व्यक्ति (परिवार) का घर शय्यातर करते हैं फिर जितने दिन रुकते हैं, स्वेच्छानुसार हर दिन एक-एक घर शय्यातर के रूप में स्वीकार कर लिया जाता है चाहे वह वसतिदाता न भी हो । वस्तुतः वसति देने वाला गृहस्थ ही शय्यातर कहलाता है ।
यहाँ उल्लेख्य है कि जब से साधु-साध्वियों के निमित्त उपाश्रय बनने लगे हैं तब से एक-एक घर या स्वेच्छा से किसी भी गृहस्थ का घर शय्यातर के रूप में मानने की व्यवस्था का सूत्रपात हुआ होगा । उससे पूर्व यह परिपाटी नहीं थी और न किसी ग्रन्थ विशेष में इस तरह का संकेत प्राप्त होता है। यदि उपाश्रय सम्पूर्ण श्री संघ के सहयोग से बनाया गया है तब तो आहार सुलभता की दृष्टि से एक-एक घर शय्यातर करने का नियम उचित है अन्यथा व्यक्तिगत उपाश्रय हो तो प्रतिदिन वसति दाता का घर ही शय्यातर करना चाहिए, किन्तु आज इस विषय के सही गवेषक मुनि गिनती मात्र रह गये हैं। आमतौर पर सुविधापूर्ण परिपाटी का ही अनुकरण किया जा रहा है।
'वसति दाता के घर का आहार नहीं लेना चाहिए' इस नियम को वर्तमान परिप्रेक्ष्य में वैकल्पिक बनाया जा सकता है। प्राचीन काल में इस नियम सम्बन्धी कोई विकल्प नहीं था। चूँकि मुनि वर्ग गृहस्थ के द्वारा स्वयं के लिए निर्मित की गई पुरानी या अतिरिक्त वसति आदि में रुकते थे और उस व्यक्तिगत वसति में रहने के कारण अप्रीति आदि उत्पन्न न हो जाये, इसलिए एकान्तिक रूप से वसतिदाता का आहारादि ग्रहण करना अनुचित ठहराया गया था। लेकिन आज उपाश्रय आदि बन जाने से किसी एक गृहस्थ के आश्रित न होने के कारण वसति दाता का आहार लिया जा सकता है, इसमें तीर्थंकर की आज्ञा विराधना को छोड़कर शेष दोषों की सम्भावनाएँ नहीं के बराबर है। यह एक पक्षीय विकल्प है। दूसरा पक्ष यह है कि यदि किसी गृहस्थ के यहाँ रुकते हैं तो वहाँ से विहार करने के बाद एक अहोरात्र तक उसके घर का आहार ग्रहण नहीं करना चाहिए।
आजकल यह पक्ष अधिक दूषित हो गया है। किसी गृहस्थ के द्वारा निमन्त्रित करने पर उसके यहाँ दो-चार या अधिक दिन भी रुकते हैं और आहारादि भी ग्रहण कर लेते हैं। संभव है कि यह दूषण कुछ परम्पराओं में ही आया हो। यदि मुनि संघ सामूहिक रूप से इस पर विचार करें तो इस दोष का