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260...जैन मुनि की आचार संहिता का सर्वाङ्गीण अध्ययन व्यवस्था की जाती है, जबकि जैन भिक्षु-भिक्षुणियों को उद्देश्यपूर्वक निर्मित भवन या उपाश्रय में रहना निषिद्ध बताया गया है।
यदि वसति विधि की समीक्षा की जाए तो यहाँ यह उल्लेखनीय है कि शुद्ध वसति के सम्प्राप्त हो जाने मात्र से वह रहने योग्य नहीं हो जाती, वरन वसति ग्रहण की भी एक विधि होती है। इसमें वसति ग्राही मुनि को पूर्व दिशा की ओर मुख करके दायीं करवट बैठे हुए और अग्रिम एक पाँव तिरछा फैलाये हुए बैल के आकार की कल्पना करनी चाहिए और वहाँ स्थान के शुभत्व का विचार करके ही निवास करना चाहिए। यदि कल्पित बैल के सींग के स्थान पर वास करें तो कलह, पाँव के स्थान में वास करें तो उदर रोग, पूंछ के स्थान में वास करें तो वसति नाश, मुख के स्थान में वास करें तो श्रेष्ठ भोजन की प्राप्ति, सिर व ककुद के स्थान में वास करें तो पूजा-सत्कार, स्कंध व पृष्ठभाग की ओर वास करें तो वसति भरी हुई रहती है। इस तरह शुद्ध वसति में भी बैल की कल्पना कर उसके अंगानुरूप योग्य स्थान ग्रहण करना चाहिए। यह विधि मूलागमों में तो प्राप्त नहीं है परन्तु परवर्ती टीका साहित्य में वर्णित है।32
यदि वर्तमान स्थिति पर एक नजर डालें तो प्रतीत होता है कि आजकल वसति सम्बन्धी नियमोपनियमों की परिपालना करना दुष्कर हो गया है। इस भौतिक युग में गवेषणा के बावजूद शुद्ध वसति नहीं मिल पाती है। दूसरे, जहाँ अत्याचार-भ्रष्टाचार जैसी विकृत संस्कृतियाँ पनप रही हों, तब साधुओं के लिए श्मशान भूमि, अरण्य स्थलों या शून्य गृहों में रहना कल्पना मात्र लगता है। इस युग में अशुद्ध या निषिद्ध वसति से कैसे बचा जा सकता है, विद्वज्जनों के द्वारा यह अवश्य विचारणीय है। सन्दर्भ सूची 1. मूलाचार, 10/956 2. आचारांगसूत्र, मुनि सौभाग्यमलजी, 2/पृ. 170-174 3. संस्कृत हिन्दी कोश, पृ. 908 4. आचारांगसूत्र, 2/1/64 5. वही, पृ. 175-176 6. वही, पृ. 176 7. वही, 2/1/66, पृ. 181-182