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250...जैन मुनि की आचार संहिता का सर्वाङ्गीण अध्ययन ___हानि-अभ्यंगन, उद्वर्तन, स्नान, अश्लील क्रियाएं और श्रृङ्गारिक चित्रादि से युक्त स्थान पर रहने या उन्हें देखने से ब्रह्मचर्य व्रत के दुषित होने की संभावनाएं बनती हैं। इन क्रियाओं को देखकर साधु का मन सत्य मार्ग से भटक सकता है। यदि अपरिपक्व साधु हो तो वासना की आग में डूब सकता है। अतएव पूर्वोक्त आठ प्रकार की वसतियों (स्थानों) में नहीं रहना चाहिये। उक्त आठ स्थान उपलक्षण मात्र से समझने चाहिए। इसी तरह के अन्य स्थान भी वर्जनीय हैं।
आचार्य वट्टकेर के निर्देशानुसार जहाँ आचार्य, उपाध्याय, प्रवर्तक, स्थविर एवं गणधर इन पाँच का आधार न हो, वहाँ नहीं रहना चाहिए।13।
भगवती आराधना के अनुसार श्रमण के लिए निम्न स्थान वर्जनीय हैं - गंधर्वशाला, नृत्यशाला, गजशाला, अश्वशाला, कुम्भारशाला, यन्त्रशाला, शंख, हाथी दांत आदि के कार्य स्थल, कोलिक, धोबी, वादक गृह, डोमगृह, नट आदि के निकटवर्ती स्थल, राजमार्ग के समीपवर्ती स्थल, चारणशाला, कोट्टकशाला (पत्थर का कार्य करने वालों का स्थान), कलालों का स्थान, रजकशाला, रसवणिकशाला (आरा से लकड़ी आदि चीरने का काम करने वालों का स्थान), पुष्पवाटिका, मालाकार का स्थान, जलाशय के समीप का स्थान आदि मुनि के रहने योग्य नहीं हैं।14 ___मूलाचार में कहा गया है कि जिस क्षेत्र में कषायों की उत्पत्ति होती हो, भक्ति-आदर का अभाव हो अर्थात लोगों में शठता की बहुलता हो, जहाँ पर चक्षु आदि इन्द्रियों के राग के कारणभूत विषयों की प्रचुरता हो, जहाँ पर श्रृङ्गार, विकार, नृत्य, गीत, उपहास आदि में तत्पर स्त्रियों का बाहुल्य हो तथा जहाँ क्लेश एवं उपसर्ग की अधिकता हो ऐसे स्थानों पर मुनि को नहीं रहना चाहिए।15 __इसी क्रम में यह भी लिखा गया है कि जिस देश में, नगर में, ग्राम में या घर में स्वामी का अनुशासन न हो, सभी लोग स्वेच्छा से प्रवृत्ति करते हों, जिस देश का राजा दुष्ट हो अर्थात धर्म विराधक हो, कुत्सित स्वभावी हो, जिस देश में शिष्य, श्रोता, अध्ययनकर्ता, व्रतरक्षण में तत्पर एवं दीक्षा स्वीकार करने वाले लोग सम्भव न हों तथा जहाँ पर व्रतों में अतिचार लगते हों, साधु को ऐसे क्षेत्र का भी प्रयत्नपूर्वक परिहार कर देना चाहिए।16