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वसति (आवास) सम्बन्धी विधि-नियम...243
5. अधिक ऊँचाई वाले स्थान
यहाँ ऊँचाई से तात्पर्य एक स्तम्भ पर बना हआ मचान या दूसरी मंजिल पर बना हुआ वह स्थान है, जिस पर निसरणी से चढ़ना पड़े अथवा जो स्थान विषम या दुर्बद्ध हो तथा जिस पर चढ़ने में कठिनाई हो सकती है और अन्धेरे में नीचे उतरे तो पाँव फिसलने या गिरने की स्थिति में आत्म विराधना और संयम विराधना की स्थिति आ सकती है। प्राचीन काल में अधिकांश कच्चे मकान ही हुआ करते थे और साधु-साध्वी उन्हीं में ठहरना उचित समझते थे, क्योंकि उनमें ठहरने से पाँच समितियों का पालन समुचित रूप से और सुविधा से हो सकता था। अतएव ऊँचे स्थानों में रहने का निषेध किया गया है परन्तु विशेष कारणों को दृष्टिगत रखते हुए उस प्रकार के उपाश्रय की अनुज्ञा भी दी गई है। जो स्थान सम हों, सरल हों, सुबद्ध हों, जहाँ से गिरने की सम्भावना न हों, जहाँ चढ़ने-उतरने में कठिनाई न हों, ऐसे ऊँचे स्थानों में ठहरने का निषेध नहीं है। ___वर्तमान युग के साधु-साध्वियों की शिथिल मन:स्थिति को देखते हुए ऊँचे स्थानों पर न रुकने का नियम अधिक प्रासंगिक लगता है। प्राचीनकाल का साधु वर्ग किसी भी स्थिति में गृहस्थ के शौचालयों का उपयोग नहीं करता था और न ही सम्मुख लाये हुए आहारादि को ग्रहण करता था। अतएव संयमी जीवन के आचारों का एवं समितियों का पालन सुविधा से हो सके, इस दृष्टि से साधुसाध्वी को यथासम्भव बहुत ऊँचे मकानों में रुकने हेतु गवेषणा नहीं करनी चाहिए।
कदाचित ऊँचे स्थान वाले उपाश्रय में रुकना पड़े तो निम्न नियमों का पालन करते हुए ठहरें-1. वहाँ गवाक्ष या बरामदे में खड़े होकर हाथ-पाँव, मुख-दाँत आदि शरीर के अवयवों को अचित्त जल से भी न धोयें। 2. गवाक्ष आदि से शरीर के किसी भी प्रकार के मैल को, जैसे नासिका का मैल या श्लेष्म, वमन या पित्त, ऊपर से नीचे न फेंकें।
हानि- अशुचि पदार्थों को ऊपर से नीचे गिराने पर संयम का घात तो होता ही है इससे शिष्टाचार का खण्डन भी होता है तथा मार्ग में चलते हुए व्यक्तियों पर छींटे पड़ने की सम्भावना भी रहती है, जिससे कई प्रकार की समस्याएँ खड़ी हो सकती हैं। इसके अतिरिक्त असावधानी हो या शरीर अस्वस्थ