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238...जैन मुनि की आचार संहिता का सर्वाङ्गीण अध्ययन चाहिए, किसी भी दशा में उसे धातु का पात्र प्रयोग में नहीं लेना चाहिए। उसे अपना जल पात्र या भोजन पात्र जल से या गाय के बालों से घर्षण करके स्वच्छ रखना चाहिए।
बौद्ध परम्परा में भी सुवर्ण, रौप्य, मणि, कांस्य, स्फटिक, कांच, तांबा आदि के पात्र रखने का स्पष्ट निषेध है। विनयपिटक में लोहे के और मिट्टी के ऐसे दो तरह के पात्र रखने की अनुमति दी गई है। इससे ज्ञात होता है कि जैन धर्म एवं हिन्दू धर्म में पात्र विषयक नियमों को लेकर मूल रूप से साम्यता है।
वर्तमान स्थिति पर नजर डालें तो पात्र गवेषणा की मूल विधि लगभग विस्मृत हो चुकी है, पात्र संख्या की मर्यादा का उल्लंघन हो रहा है, जो जितने चाहे पात्र रख सकते हैं। दूसरे, पात्र संख्या में वृद्धि होने के कारण इसकी निर्माण प्रक्रिया में भी परिवर्तन आया है। संभवत: औद्योगिक स्तर पर इनका निर्माण होना शुरू हो गया है जो साध्वाचार के सर्वथा विरुद्ध है। सन्दर्भ-सूची 1. आचारांगसूत्र, संपा. मधुकरमुनि, 2/6/1/588 2. वही, 2/6/1/591 3. वही, 2/6/1/588, 592 4. आचारांगवृत्ति, पत्र 399 5. (क) जे णिग्गंथे तरुणे बलवं जुवाणे एगं पायं धारेज्जाणो बितिय।
निशीथसूत्र, उ. 13, पृ. 441 (ख) जे भिक्खू तरूणे जुगवं बलवं से एगं पायं धारेज्जा।
बृहत्कल्पसूत्र, पृ. 1109 6. बृहत्कल्पसूत्र, 1/18 7. वही, 5/30 8. आचारांग मूल तथा वृत्ति, पत्रांक 399 के आधार पर 9. निशीथसूत्र, संपा. अमरमुनि, 11/1 10. आचारांगसूत्र, 2/6/1/589 11. वही, 2/6/1/590-591 12. बृहत्कल्पभाष्य, 4022 वृत्ति 13. वही, 4023-4025