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232...जैन मुनि की आचार संहिता का सर्वाङ्गीण अध्ययन 2. अस्थिर, अध्रुव और अधारणीय यानी पात्र के अधोभाग का पैंदा अस्थिर
हो तो उसे ग्रहण न करें। 3. पात्र स्थिर, ध्रुव और धारणीय होते हुए भी दाता द्वारा रुचिपूर्वक न दिया
जाए तो उसे ग्रहण न करें। 4. पात्र को सुन्दर बनाने के लिए सुगन्धित द्रव्यों से नहीं घिसें। 5. पात्र को सुन्दर बनाने के उद्देश्य से उसे प्रासुक ठण्डे या उष्ण जल से
नहीं धोयें। 6. पात्र को सचित्त, स्निग्ध पृथ्वी (भूमि) पर नहीं सुखायें। 7. पात्र को गृहद्वार, ऊखल, स्नानपीठ या ऊँचे चलाचल स्थान पर नहीं
सुखायें। 8. पात्र को एकान्त में ले जाकर निर्दोष भूमि पर यतनापूर्वक सुखायें।
उक्त वर्णन का निष्कर्ष यह है कि जैन साधु-साध्वियों के लिए पात्र रंगने एवं पात्रादि पर मीनाकारी करने का सर्वथा निषेध किया गया है, क्योंकि यह कार्य आचार और आगम दोनों के विरुद्ध है। अत: जो भिक्षु पात्रैषणा सम्बन्धी विवेक को अपनाता है वह चारित्र धर्म की समग्रता को प्राप्त करता है। पात्र रंगने की विधि
यह उल्लेख्य है कि जैन धर्म के मूल आगमों में पात्र रंगने सम्बन्धी किसी प्रकार का कोई संकेत नहीं है। किन्तु आगमिक व्याख्या साहित्य में तद्विषयक उल्लेख उपलब्ध होता है। ओघनियुक्तिकार की मान्यतानुसार पात्र लेप की विधि निम्नोक्त है-17
लेप ग्रहण विधि- लेप (रंगने) योग्य पात्र दो तरह के होते हैं-नये और पुराने। दोनों तरह के पात्र गुरु की अनुमति से रंगें तथा पात्र रंगने का कार्य प्रात:काल में करें ताकि जल्दी सूख जाये। .. सर्वप्रथम पात्र लेप का इच्छुक साधु उस दिन उपवास तप करें, कारण कि पात्र की जरूरत न होने से रंगने का कार्य अच्छी तरह से किया जा सके। यदि उपवास की शक्ति न हो तो सुबह ही आहार कर लें। यदि सुबह आहार न मिले तो अन्य साधु लाकर दें और वे आहार करें। उसके बाद गुरु से रंग लाने हेतु अनुमति माँगें। गुरु द्वारा अनुमति प्राप्त होने के बाद गुरु एवं सभी साधुओं से रंग की जरूरत के बारे में पूछे। वे अपनी आवश्यकता के अनुसार जितना कहें