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________________ वस्त्र ग्रहण सम्बन्धी विधि- नियम... 221 निवारण के लिए वस्त्र धारण करें। वे शरीर विभूषा एवं इन्द्रिय पोषण के लिए वस्त्र धारण न करें। वस्त्र धारण की यही विधि शुद्ध है। 12 वस्त्र प्राप्ति की विधि जैन टीका साहित्य में वर्णन आता है कि किसी भी मुनि को जिस वस्त्र की आवश्यकता हो वह उसकी प्राप्ति के लिए प्रवर्त्तक से निवेदन करे । प्रवर्त्तक आचार्य को कहें तब आचार्य आभिग्राहिक मुनि से (जिसने समस्त गच्छ के लिए वस्त्र-पात्रों की पूर्ति करने का अभिग्रह ले रखा हो) वस्त्र की गवेषणा करने के लिए कहें और यदि वह लाने में समर्थ न हो तो दूसरे मुनि को वस्त्र - गवेषणा के लिए कहें। इस तरह वस्त्र को प्राप्त करें। 13 वस्त्र ग्रहण किससे किया जाए ? बृहत्कल्पभाष्य में स्थविरा (ज्ञान, वय एवं पर्याय से वृद्ध) साध्वी के लिए तेरह स्थानों से वस्त्र ग्रहण करने का निषेध किया गया है। दूसरे, जैन परम्परा में वस्त्र याचना करने एवं गृहस्थ द्वारा प्रदत्त वस्त्र लेने का अधिकार सामान्य साध्वियों को नहीं है। यह अधिकार प्रवर्त्तिनी या स्थविरा को ही प्राप्त है । यदि भिक्षागमनार्थ साध्वी निर्दोष वस्त्र ले आये, तो भी प्रवर्त्तिनी के द्वारा उस वस्त्र की सात दिन तक रखकर परीक्षा की जाये, उसके बाद भी शुद्ध हो तो उसे ग्रहण करने का विधान है। यदि अशुद्ध भावों का उत्पादक है तो उसे छिन्न-भिन्न कर परिष्ठापित कर दें। मूलतः श्रमणी के वस्त्र श्रमणों के द्वारा ही प्राप्त करने का निर्देश है और उन्हीं के द्वारा वस्त्र की परीक्षा करने का भी उल्लेख है। श्रमणों के अभाव में गीतार्थ स्थविरा वस्त्र की गवेषणा करे । किन्तु स्थविरा साध्वी निम्न तेरह स्थानों से वस्त्र ग्रहण न करें। 1. कापालिक 2. बौद्ध भिक्षु 3. शौचवादी 4. कूर्चन्धर 5. वेश्यास्त्री 6. वणिक 7. तरुण 8. पूर्वपरिचित उद्भ्रामक 9. मामा का पुत्र 10. भर्त्ता 11. माता-पिता, भगिनी - भ्राता 12. सम्बन्धीजन और 13. श्रावक । इन्हें छोड़कर भावित कुलों से वस्त्र ग्रहण करें। वहाँ वस्त्र प्राप्ति न होने पर प्रतिषिद्ध स्थानों से किन्तु पश्चानुपूर्वी क्रम से यतनापूर्वक वस्त्र ग्रहण करें | 14 वस्त्र उपयोग विधि जैन साधु-साध्वी के लिए सामान्यतया दो सूती और एक ऊनी वस्त्र रखने का नियम है। सूती वस्त्र भीतर में और उसके ऊपर ऊनी वस्त्र धारण करे। यह
SR No.006242
Book TitleJain Muni Ki Aachar Samhita Ka Sarvangin Adhyayan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSaumyagunashreeji
PublisherPrachya Vidyapith
Publication Year2014
Total Pages472
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & D000
File Size32 MB
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