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220...जैन मुनि की आचार संहिता का सर्वाङ्गीण अध्ययन
2. अल्पपरिकर्म- गृहस्थ के द्वारा दिये गये वस्त्र में फाड़ना, सीलना आदि अल्प परिकर्म करना पड़े और जिस रूप में दिया गया है उसका उस रूप में उपयोग नहीं किया जा सके तो वह अल्पपरिकर्मी वस्त्र कहलाता है।
3. बहुपरिकर्म- गृहस्थ के द्वारा दिये गये वस्त्र में सांधना, सीलना आदि परिकर्म अधिक मात्रा में करना पड़े, वह बहपरिकर्म वाला वस्त्र कहलाता है।
जैन मुनि को यथाकृत वस्त्र ही ग्रहण करना चाहिए, क्योंकि परिकर्म वाले वस्त्र ग्रहण करने पर संयम विराधना, आत्म विराधना, स्वाध्याय हानि आदि दोष लगते हैं। यदि यथाकृत वस्त्र न मिले तो अल्पपरिकर्म वाले वस्त्र ले सकते हैं तथा अल्प परिकर्म वाले वस्त्र न मिलने पर बहपरिकर्म वाले वस्त्र भी लिए जा सकते हैं। कौनसा वस्त्र कल्प्य-अकल्प्य?
जैन भिक्षु के लिए प्रमाणोपेत, निर्दोष एवं गुरु अनुमत वस्त्र ही ग्रहण करने का निर्देश है, किन्तु वह वस्त्र कैसा होना चाहिए? आचारांगसूत्र कहता है कि जो मनि के लिए बनाया गया, खरीदा गया, उधार लिया गया, छीनकर लाया गया, दो स्वामियों में से एक की आज्ञा के बिना लाया हुआ, धोया हुआ आदि दोषों से युक्त न हो, वही वस्त्र ग्रहण करने के योग्य है।10 इसके अतिरिक्त कृत्स्न वस्त्र और भिन्न वस्त्र का उपयोग भी वर्जित माना गया है। कृत्स्न का अर्थ अखण्ड वस्त्र है। अखण्ड वस्त्र का निषेध इसलिए किया गया है कि वस्त्र का विक्रय मूल्य या साम्पत्तिक मूल्य न रहे। यानी उसे कोई बेच-खरीद न पाये। वस्त्र शुद्धि के सम्बन्ध में यह विवेक भी आवश्यक है कि मुनि वस्त्र की गवेषणा के लिए अर्ध योजन से अधिक गमन न करे।11
सारांशत: जो वस्त्र श्रमण के लिए क्रीत हो, उसके लिए धोया गया हो यह अकल्प्य है तथा जो वस्त्र सादा एवं निर्दोष हो वह कल्प्य है। इसी तरह मुनि के लिए बहुमूल्य वस्त्र की याचना करना भी निषिद्ध है। प्रसाधन के निमित्त वस्त्र को रंगना, धोना आदि भी मुनि के लिए वर्जित है। मुनि वस्त्र धारण क्यों करें?
स्थानांगसूत्र में वस्त्र धारण के निम्न तीन प्रयोजन बतलाते हए कहा गया है कि भिक्षु लज्जा-निवारण के लिए, घृणा निवारण के लिए एवं शीतादि परीषह