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________________ 216... जैन मुनि की आचार संहिता का सर्वाङ्गीण अध्ययन जायेंगे' इस प्रकार से कहकर ग्रहण करना चाहिए। अन्यथा गृहस्थ के द्वारा पर भी गुरु आज्ञा के बिना उसका उपयोग करने से चोरी का दोष लगता है। इसका कारण यह है कि गोचरी के लिए आचार्यादि से आज्ञा लेकर जाने पर आहार ग्रहण की ही आज्ञा होती है, अतः वस्त्रादि के लिए स्पष्ट कहकर अलग से आज्ञा लेना आवश्यक है। वस्त्र ग्रहण के सम्बन्ध में यह निर्देश भी दिया गया है कि यदि भिक्षा के लिए आये हुए साधु को दाता - वस्त्रादि लेने का अनुनय करे तो साधु गृहस्वामी से पूछे कि यह वस्त्र किसका है और कहाँ से और क्यों लाया गया है? मुझे क्यों दिया जा रहा है? यदि गृहस्वामी के द्वारा उत्तर मिले कि " आपके शरीर पर अति जीर्ण वस्त्र है या पात्रादि टूटे-फूटे दिख रहे हैं, अतः आपको धर्मभावना या कर्तव्य से प्रेरित होकर दिया जा रहा है" तब आचार्य से अनुमति लेकर वस्त्र ग्रहण करे। यदि सन्तोषकारक उत्तर न मिले तो नहीं ले। मुनि के द्वारा वस्त्र ग्रहण की यही विधि है। साध्वी के द्वारा भी वस्त्र ग्रहण करने की यही विधि जाननी चाहिए। किन्तु इतना विशेष है कि प्रवर्त्तिनी भिक्षार्थ साध्वी के द्वारा लाये गये वस्त्रादि को सात दिन तक अपने पास रखें और उसकी यतना पूर्वक परीक्षा करें–“यह विद्या, सम्मोहन चूर्ण, मन्त्र आदि से तो मन्त्रित नहीं है?” यदि उसे निर्दोष प्रतीत हो तो सबसे पहले लाने वाली साध्वी को या उसे आवश्यकता न होने पर अन्य साध्वी को दे दें। प्रवर्त्तिनी यह भी जांच करें कि देने वाला व्यक्ति युवा, विधुर, व्यभिचारी या दुराचारी तो नहीं है और जिसे दिया गया है वह युवती और नवदीक्षिता तो नहीं है । यदि इनमें से कोई भी कारण दृष्टिगोचर हो तो प्रवर्त्तिनी उसे वापस कर दें। यदि ऐसा कोई कारण नहीं हो तो उसे अन्य साध्वी को दे दें। नियुक्तिकार ने इस परीक्षा का कारण यह बताया है कि “स्त्रियाँ प्रकृति से ही अल्पधैर्यवाली होती हैं और दूसरों के प्रलोभन से शीघ्र लुब्ध हो जाती हैं। " यद्यपि बृहत्कल्पानुसार आचार्य की अनुमति हो तो गृहस्थ से साध्वी वस्त्रादि ग्रहण कर सकती है, किन्तु भाष्यकार के मत से उत्सर्ग मार्ग यही है कि साध्वी किसी भी गृहस्थ से स्वयं वस्त्रादि न ले। उसे जब भी वस्त्रादि की आवश्यकता हो, वह अपनी प्रवर्त्तिनी से कहे या आचार्य से कहे। आचार्य गृहस्थ के यहाँ से वस्त्र लायें, सात दिनों तक उसकी परीक्षा करें, फिर प्रवर्त्तिनी
SR No.006242
Book TitleJain Muni Ki Aachar Samhita Ka Sarvangin Adhyayan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSaumyagunashreeji
PublisherPrachya Vidyapith
Publication Year2014
Total Pages472
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & D000
File Size32 MB
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