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________________ अध्याय-7 वस्त्र ग्रहण सम्बन्धी विधि-नियम जैन मुनि की प्रत्येक क्रिया कई विधि-नियमों से युक्त होती है। देह एवं शील रक्षा की अपेक्षा से प्रयुक्त वस्त्र के ग्रहण सम्बन्धी भी अनेक नियमोपनियमों की चर्चा आचार विषयक ग्रन्थों में है। जैसे वस्त्र की याचना किस विधि से करे, उसके लिए कौन-सा वस्त्र कल्प्य है, वह कितने वस्त्र रख सकता है, आगम युग में कितने वस्त्रों का प्रावधान था? आदि ऐसे ही अनेक पक्ष विचारणीय रहे हैं। सामान्यतया दिगम्बर मान्यता यह है कि मुनि को वस्त्ररहित अर्थात अचेल रहना चाहिए। वहाँ मुनि के लिए वस्त्रों का उपयोग सर्वथा निषिद्ध है। यद्यपि साध्वी के लिए उनमें भी वस्त्रों का विधान है। श्वेताम्बर परम्परा में मुनि के लिए सचेल (वस्त्रसहित) एवं अचेल (वस्त्ररहित) दोनों तरह की मान्यताएँ रही हैं। उनके मत में जिनकल्पी वस्त्ररहित एवं स्थविरकल्पी वस्त्रसहित होते हैं। वस्त्र ग्रहण की शास्त्रोक्त विधि आचारांगसूत्र के अनुसार मुनि को स्वयं के द्वारा याचित वस्त्र ही ग्रहण करना कल्प्य है। जब मुनि वस्त्र की गवेषणा करे और उसे निर्दोष वस्त्र प्राप्त हो जाये तो उस वस्त्र को ग्रहण करने से पहले उसकी सभी ओर से प्रतिलेखना करनी चाहिए, अन्यथा कर्म बन्धन होता है ऐसा जिन वचन है। यदि प्रतिलेखना न की जाए तो कदाचित उस वस्त्र के सिरे पर कुछ बंधा हो, जैसे कुण्डल, रत्नों की माला या हरी वनस्पति आदि तो वह अनर्थ का कारण हो सकता है। बृहत्कल्पसूत्र में वस्त्र ग्रहण विधि के सम्बन्ध में यह निर्देश है कि कोई साधु आचार्य की अनुमति लेकर किसी गृहस्थ के घर भिक्षार्थ गया हो और गृह स्वामी आहार-पानी देने के पश्चात वस्त्र, पात्रादि लेने के लिए कहे और भिक्ष को उनकी आवश्यकता हो तो यह कहकर लेना चाहिए कि 'यदि हमारे आचार्य आज्ञा देंगे तो इसे रखेंगे नहीं तो तुम्हारे ये वस्त्र-पात्रादि तुम्हें वापस लौटा दिए
SR No.006242
Book TitleJain Muni Ki Aachar Samhita Ka Sarvangin Adhyayan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSaumyagunashreeji
PublisherPrachya Vidyapith
Publication Year2014
Total Pages472
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & D000
File Size32 MB
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