________________
202... जैन मुनि की आचार संहिता का सर्वाङ्गीण अध्ययन
उनके समक्ष सामायिक लेने का प्रसंग बने तो यावत्कथिक स्थापना होती है। जैन मुनि की समग्र क्रियाएँ स्थापनाचार्य के समक्ष ही होती हैं।
मुखवस्त्रिका एवं अन्य वस्त्रों की भाँति पात्र सम्बन्धी वस्त्रों की प्रतिलेखना उत्कटासन में क्यों नहीं? - प्राचीन साधु सामाचारी के अनुसार मुखवस्त्रिका आदि अंगीय वस्त्रों की प्रतिलेखना उकडु आसन में बैठकर करनी चाहिए और पात्र सम्बन्धी - झोली, गोच्छग, पडला आदि वस्त्रों की प्रतिलेखना सुखासन (पालथी लगाना) में बैठकर करने का निर्देश है। यहाँ प्रश्न होता है कि वस्त्रों की प्रतिलेखना में इस प्रकार का भेद क्यों ? इसका समाधान करते हुए कहा गया है कि पहले साधु आसन पर बैठें, फिर पात्र सम्बन्धी वस्त्रों की प्रतिलेखना के लिए उत्कटासन में बैठें, पुनः पात्र प्रतिलेखना के लिए आसन पर बैठें, क्योंकि पात्र हाथ से छूटने एवं टूटने का भय सदैव बना रहता है इसलिए उसकी प्रतिलेखना आसन पर बैठकर करने का विधान है। तात्पर्य यह है कि पात्र प्रतिलेखना के लिए आसन पर बैठना, पात्र सम्बन्धी वस्त्रों की प्रतिलेखना के लिए उकडु बैठना - इस तरह का क्रम बार-बार करने से विलम्ब होता है। इससे सूत्र -अर्थ रूप स्वाध्याय में विघ्न आता है। अतएव पात्र के साथ पात्र सम्बन्धी वस्त्रों की प्रतिलेखना भी आसन पर बैठकर करने के लिए कहा गया है।
पात्र के बाहर के तलिये का प्रमार्जन क्यों? ओघनियुक्ति एवं पंचवस्तुक आदि में पात्र के अधोभाग की प्रतिलेखना के निम्न कारण बतलाये गये हैं
जिस गाँव में साधु रहता हो और वह गाँव यदि नया बसा हो तो कदाचित पात्र के समीप में, जमीन की गहराई में से चूहा बिल खोद सकता है, इससे उसकी धूल पात्र को लग सकती है। जहाँ पात्र रखे हों वहाँ नीचे की जमीन भीगी हो तो पानी की बूंद जमीन से निकलकर बाहर भी आ सकती हैं और नमी के अंश के कारण पात्र स्थापन के नीचे वाले गुच्छे को भेदकर पात्र को भी लग सकती हैं, क्योंकि हरितकाय के जल बिन्दु ऊर्ध्वगामी होते हैं। वहाँ भंवरी (कोत्थल कारिका नामक जन्तु) पात्र के नीचे मिट्टी का घर भी बना सकती है, अतः सचित्त जल आदि से बचने एवं जीवों की जयणा हेतु तलिये का भी प्रतिलेखन और प्रमार्जन किया जाना चाहिए।