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प्रतिलेखना एवं प्रमार्जना सम्बन्धी विधि-नियम...201 पालन एवं स्वाध्यायादि सर्व क्रियाओं को पवित्रता के साथ सम्पन्न करने के उद्देश्य से की जाती है।
स्थापनाचार्य प्रतिलेखना के विविध दृष्टिकोण? श्वेताम्बर मूर्तिपूजक परम्परा में स्थापनाचार्य एक मुख्य उपकरण है। जैसा कि इसके नाम से ही प्रतिभासित होता है, यह आलंबन रूप से स्थापित आचार्य (गुरु) है, जिससे साक्षात आचार्य आदि के अभाव में या उनके दूरस्थ होने पर भी स्थापना निक्षेप के रूप में उनका एक प्रत्यक्ष स्वरूप सामने रखा जाता है। प्रतिलेखना जैन मुनि का आवश्यक आचार है, अत: स्थापनाचार्य पास में होने से उसकी प्रतिलेखना भी आवश्यक हो जाती है। इसके द्वारा तीर्थंकरों की आज्ञा का पालन, आचार्यों के उपकार एवं उनके महिमा की स्मृति बनी रहती है। यदि गुरु का सान्निध्य न हो तो शिष्य किसी भी कार्य के लिए आज्ञा आदि किससे प्राप्त करेगा और इस स्थिति में स्वच्छंद वृत्ति एवं उच्छृखलता आदि की संभावनाएँ बढ़ जाती हैं। इस प्रकार स्थापनाचार्य साक्षी रूप होने से मुनिगण आचार पालन में चुस्त रहते हैं।
इसकी मूल्यवत्ता के सम्बन्ध में कई ऐतिहासिक प्रमाण उपलब्ध हैं। जैसे एकलव्य ने गुरु द्रोणाचार्य की मूर्ति स्थापित करके धनुर्विद्या का शिक्षण प्राप्त किया था और उस विद्या में अर्जुन से भी अधिक योग्यता प्राप्त की थी। इसलिए स्थापनाचार्य का महत्त्व स्पष्ट है। समभाव की साधना करने वाला साधक गुरु (आचार्य) की स्थापना करके साधना में लीन बने तो अवश्य सफलता मिलती है।
स्थापना दो प्रकार की होती है 1. इत्वरिक और 2. यावत्कथिक। चन्दन, शंख या सीप आदि में पंच परमेष्ठी या पंचाचार के प्रतीक रूप में चिह्न अंकित करना यावत्कथिक स्थापना है। खरतरगच्छ में चन्दन के स्थापनाचार्य रखते हैं। तपागच्छ आदि परम्पराओं में प्राय: स्थापना के रूप में पाँच शंख रखे जाते हैं। पाँच शंख रखने का एक प्रयोजन यह सुना जाता है कि परमात्मा महावीर की पट्ट परम्परा में पहला नाम सुधर्मास्वामी का आता है। अभी सुधर्मास्वामी की परम्परा चली आ रही हैं। सुधर्मास्वामी भगवान महावीर के पाँचवें गणधर थे और उनके चरणों पर शंख का चिह्न था, इसलिए शंख की स्थापना करते हैं।
पुस्तक, माला आदि की स्थापना करना इत्वरिक स्थापना है। अधिकांश गृहस्थवर्ग पुस्तकादि की स्थापना करते हैं। यदि गुरु भगवन्त विराज रहे हों और