________________
प्रतिलेखना एवं प्रमार्जना सम्बन्धी विधि-नियम... 179
को दिखाई देने लगे, वह प्रतिलेखना के लिए उत्तम काल है। • किसी के अनुसार जब हाथ की रेखाएँ दिखाई पड़ जाये, तब प्रतिलेखना करनी चाहिए। परमार्थ से उपर्युक्त सभी कथन मति कल्पित है।
कुकड़ा बोले तब प्रतिलेखना करना यह समय तो सर्वथा अनुचित है, क्योंकि उस समय अंधकार रहता है। कुर्कुटादेशी आचार्य को यह भ्रम इस कारण से हुआ प्रतीत होता है कि जैसे दैवसिक प्रतिलेखना दिन के चतुर्थ प्रहर में की जाती है वैसे रात्रिक प्रतिलेखना भी रात्रि के चतुर्थ प्रहर में की जानी चाहिए, किन्तु ऐसा नहीं है। दूसरे, अन्धकार वाले उपाश्रय में तो सूर्य उदय होने पर भी हाथ की रेखाएँ नहीं दिखती हैं, 45 अतः ओघनिर्युक्ति में भी प्रभातकालीन प्रतिलेखना काल के पूर्वोक्त चार अभिमत दिये गये हैं, किन्तु इन्हें अनादेश माना गया है।46 निर्णायक पक्ष के अनुसार मुनि रात्रिक प्रतिक्रमण के पश्चात ज्ञान, दर्शन, चारित्र की तीन स्तुति करें। 47 फिर मुखवस्त्रिका, रजोहरण, दो निषद्याएँ, चोलपट्ट, तीन उत्तरीय (एक ऊनी - दो सूती वस्त्र), संस्तारकपट्ट और उत्तरपट्ट-इन दस वस्तुओं की प्रतिलेखना के पश्चात सूर्योदय हो जाए, वही प्रतिलेखना का शास्त्रोक्त काल है। इस अवधि से पूर्व या पश्चात की गई प्रतिलेखना न्यूनातिरिक्त दोष वाली होती है। 48
तुलना
प्रात:काल में वस्त्रादि उपकरणों की प्रतिलेखना कब की जाये ? इस सन्दर्भित आगम साहित्य में कोई उल्लेख प्राप्त नहीं होता है और इस विषयक भी कोई जानकारी नहीं मिलती है कि कितने वस्त्रादि की प्रतिलेखना की जाये । यदि आगमिक व्याख्या साहित्य को देखा जाए तो यह चर्चा ओघनिर्युक्ति में उपलब्ध होती है। तदनन्तर आचार्य हरिभद्रसूरि के पंचवस्तुक में पूर्वापेक्षा अधिक विस्तार से प्राप्त होती है और यतिदिनचर्या आदि ग्रन्थों में भी परिलक्षित होती है। इससे अनुमानित होता है कि यह व्यवस्था क्रम परवर्ती है। उत्तराध्ययनसूत्र में पात्र प्रतिलेखना का काल अवश्य बताया गया है, किन्तु वस्त्रादि प्रतिलेखना सम्बन्धी काल का कोई निर्देश नहीं है।
स्थापनाचार्य प्रतिलेखना विधि
श्वेताम्बर मूर्तिपूजक परम्परा में मुनि जीवन की आवश्यक क्रियाएँ जैसेईर्यापथिक प्रतिक्रमण, रात्रिक- दैवसिक-पाक्षिकादि प्रतिक्रमण, अंग-उपधि