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प्रतिलेखना एवं प्रमार्जना सम्बन्धी विधि- नियम... 175
तीन बार तीन-तीन जगहों पर प्रमार्जन करना नव अक्खोडा है। इसी प्रकार वस्त्र को कोहनी से हथेली की ओर नीचे ले जाते हुए तीन बार तीन-तीन जगहों पर प्रमार्जना करना नव पक्खोडा है।
6. पाणिपाण विशोधन - वस्त्र आदि पर कोई जीव दिख जाए तो उसे
यतनापूर्वक निर्जीव भूमि पर रख दें।
यहाँ 1 दृष्टि प्रतिलेखन, 6 पुरिम ( झटकाना) और 18 खोटक (प्रमार्जन) करना-इस तरह प्रतिलेखना के कुल 1+ 6 + 18 = 25 प्रकार होते हैं। प्रतिलेखना के विकल्प
जैनागमों में वर्णित है कि वस्त्र के प्रस्फोटन और प्रमार्जन की संख्या से अन्यून अनतिरिक्त (न कम और न अधिक) और अविपरीत प्रतिलेखना करनी चाहिए। इन तीनों विशेषणों के आधार पर प्रतिलेखना के आठ विकल्प बनते हैं। इनमें प्रथम विकल्प (अन्यून, अनतिरिक्त और अविपरीत) प्रशस्त है और शेष अप्रशस्त हैं। जैसे 37
अनतिरिक्त
अनतिरिक्त
अतिरिक्त
अतिरिक्त
अनतिरिक्त
अनतिरिक्त
अतिरिक्त
अतिरिक्त
अविपरीत
विपरीत
अविपरीत
विपरीत
1. अन्यून
2. अन्यून
3. अन्यून
4. अन्यून
5. न्यून
6. न्यून
7. न्यून
8. न्यून प्रतिलेखना के दोष
जैन आगमों में प्रतिलेखना करते वक्त षड्विध दोषों की संभावनाएँ बतायी गयी हैं। प्रतिलेखना काल में उन दोषों से बचने का प्रयत्न करना चाहिए। वे दोष निम्न हैं-38
1. आरभटा - विधि के विपरीत प्रतिलेखना करना अथवा एक वस्त्र की प्रतिलेखना अधूरी छोड़कर दूसरे वस्त्र की प्रतिलेखना में लग जाना । 2. सम्मर्दा - प्रतिलेखन करते समय वस्त्र को इस प्रकार पकड़ना कि उसके बीच में सलवटें पड़ जायें अथवा प्रतिलेखनीय उपधि पर बैठकर
अविपरीत
विपरीत
अविपरीत
विपरीत