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प्रतिलेखना एवं प्रमार्जना सम्बन्धी विधि-नियम...173 तथा 25-25 बोल से सूती निशेथिया एवं ऊनी निशेथिया (ओघारिया) की प्रतिलेखना करें। उसके बाद डोरे को चौगुणा करके रजोहरण के द्वारा 10 बोल से उसकी प्रतिलेखना करें। फिर प्रतिलेखित डोरे को कान के ऊपरी भाग में रखकर एवं घुटनों के बल बैठकर रजोहरण बाँधे। 32 ___दंडा प्रतिलेखना- डंडे की प्रतिलेखना 10 बोल से खड़े-खड़े करें एवं रजोहरण से उसकी प्रमार्जना करें।33
दण्डासन प्रतिलेखना- दण्डासन की प्रतिलेखना उकडूं आसन में बैठकर 10 बोल से करें तथा बोल का चिन्तन करते हुए दण्डासन के सम्पूर्ण भाग पर दृष्टि को एकाग्रचित्त बनाये रखें।
काष्ठासन-पट्टादि प्रतिलेखना-पट्टा, चौकी, पाट आदि की प्रतिलेखना 25-25 बोल पूर्वक अर्धावनत मुद्रा में या उकइँ आसन में बैठकर करें। ___इनकी प्रतिलेखना करते समय सर्वप्रथम दृष्टि पडिलेहण करें। फिर उनके चारों पार्यों में तीन-तीन बार कुल 12 बार प्रतिलेखना करें। फिर पट्टादि के चारों पाँवों पर तीन-तीन बार ऐसे कुल 12 बार प्रतिलेखना करें। इस तरह 25 बोल पूर्वक 25 बार प्रतिलेखना करें।34
कंबली-चद्दर-उत्तरपट्ट-संस्तारक-निशेथिया आदि की प्रतिलेखनाकंबली आदि वस्त्रों की प्रतिलेखना मुखवस्त्रिका के समान करनी चाहिए। जिस प्रकार मुखवस्त्रिका की प्रतिलेखना करते हुए दृष्टि पडिलेहण, दोनों पार्यों का पडिलेहण, नौ अक्खोडा एवं नौ पक्खोडा आदि क्रियाएँ की जाती हैं उसी प्रकार की समस्त क्रियाएँ अन्य वस्त्रों की प्रतिलेखना के समय भी की जानी चाहिए।
परन्तु जो वस्त्र बड़े होते हैं उनका वधूटक करना संभव नहीं हो पाता है। इसलिए उन्हें अंगुलियों के द्वारा पकड़कर प्रतिलेखित करते हैं। वस्त्र प्रतिलेखना करते समय कुछ सावधानियाँ अपेक्षित हैं जो उत्तराध्ययनसूत्र में इस प्रकार बतायी गयी हैं-35 1. उड्ढे (ऊर्ध्व)-उकडूं आसन में बैठकर वस्त्रों को भूमि से ऊँचा रखते हुए
प्रतिलेखन करना चाहिए। 2. थिरं (स्थिर)-वस्त्र गिर न जाये, इसलिए दृढ़तापूर्वक पकड़कर उसकी
प्रतिलेखना करनी चाहिए।