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________________ 172...जैन मुनि की आचार संहिता का सर्वाङ्गीण अध्ययन पूर्वक की जानी चाहिए? इसका भी उसमें उल्लेख है। साधुविधिप्रकाश में बोल सम्बन्धी चर्चा कुछ स्पष्टता के साथ है। इसमें अन्य पक्ष भी सस्पष्ट रूप से वर्णित हैं। श्वेताम्बर मूर्तिपूजक परम्परा के अतिरिक्त अन्य सम्प्रदायों में प्रतिलेखना करते समय बोलों के चिन्तन का विधान नहीं है। मूलागमों में भी इसकी चर्चा नहीं है। इससे ज्ञात होता है कि यह अवधारणा परवर्ती है, किन्तु श्वेताम्बर मूर्तिपूजक आम्नाय में इसे आवश्यक माना गया है। उपधि और पात्र के सम्बन्ध में विशेष विचार ओघनियुक्ति एवं पंचवस्तुक आदि ग्रन्थों में निर्देश है कि जैन साधु ऋतुबद्धकाल (चातुर्मास के चार महीनों को छोड़कर शेष आठ मास) में उपधि (वस्त्र, पात्रादि) की प्रतिलेखना करने के पश्चात वस्त्र उपधि को बाँधकर रखें। पात्रों को स्वयं के पास रखें। रजस्त्राण को भी अपने पास रखें। इस विधि का पालन न करने से अग्नि, चोर, राज्य आदि उपद्रवों का दोष लगता है। जैसे कि उपधि को बाँधकर नहीं रखा गया हो और अचानक अग्नि का उपद्रव हो जाये तो उसके भय से क्षुब्ध हुए साधु के द्वारा पृथक-पृथक रखी गई उपधि को एकत्रित करते हुए कोई वस्त्र छूट सकता है। शीघ्रता से उपधि एवं पात्र नहीं ले सकने के कारण वे अग्निसात भी हो सकते हैं, उन्हें चोर भी सरलता से चुरा सकते हैं, पात्र को जल्दी-जल्दी लेने-पकड़ने से गिर या टूट जाये तो छह काय जीवों की विराधना होती है। इस तरह अनेक विराधनाएं होने की सम्भावना रहती है। जबकि उपधि स्वयं के निकट हो तो राजादि का भय उपस्थित होने पर तुरन्त अन्य स्थान पर जा सकते हैं। इससे संयमोपकरण और आत्मा दोनों का संरक्षण भी कर सकते हैं। उपर्युक्त ग्रन्थों के अनुसार मुनि वर्षाकाल में उपधि को बाँधे नहीं और पात्र को स्वयं से दूर रखें। इसका कारण यह है कि वर्षाकाल में पानी की अधिकता होने से अग्नि उपद्रव नहीं होता है। वर्षा के कारण पल्लीपति आदि चोर-डाकू भी नहीं आते हैं और वर्षाऋतु में मार्ग अवरुद्ध हो जाने से राजाओं के उपद्रव भी नहीं होते हैं। इस तरह अग्नि, चोर, राज्योपद्रव आदि की आशंकाएं न होने से उपधि और पात्र को एकान्त में रखने का निर्देश दिया गया है।31 रजोहरण आदि उपकरणों की प्रतिलेखना विधि रजोहरण प्रतिलेखना- सर्वप्रथम उकई आसन में बैठकर रजोहरण को खोलें। फिर क्रमश: 25 बोल से रजोहरण के दसियों की, 10 बोल से डण्डी की
SR No.006242
Book TitleJain Muni Ki Aachar Samhita Ka Sarvangin Adhyayan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSaumyagunashreeji
PublisherPrachya Vidyapith
Publication Year2014
Total Pages472
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & D000
File Size32 MB
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