________________
प्रतिलेखना एवं प्रमार्जना सम्बन्धी विधि-नियम... 167
5. हृदय— तदनन्तर पूर्ववत मुद्रा में मुखवस्त्रिका के दोनों किनारों को दोनों हाथों से पकड़कर हृदय की प्रतिलेखना- माया शल्य कहते हुए मध्य भाग में, निदान शल्य कहते हुए दायीं तरफ एवं मिथ्यादर्शन शल्य परिहरूं कहते हुए बायीं तरफ करें।
6. कंधा - फिर क्रोध मान परिहरूं कहते हुए दायें कंधे का प्रतिलेखन करें। फिर माया लोभ परिहरूं कहते हुए बायें कंधे का प्रतिलेखन करें। कहते
7. पाँव- तत्पश्चात पृथ्वीकाय, अप्काय, तेउकाय की रक्षा करूं हुए दाहिने पाँव के मध्य, दायें एवं बायें भाग की प्रतिलेखना रजोहरण से करें। फिर वायुकाय, वनस्पतिकाय, त्रसकाय की जयणा करूं कहते हुए बायें पांव के मध्य आदि भागों की प्रतिलेखना रजोहरण से करें ।
इस प्रकार बायें हाथ की 3, दायें हाथ की 3, मस्तक की 3, मुख की 3, हृदय की 3, दायें-बायें कंधे की 4, दायें पांव की 3, बायें पाँव की 3 ऐसे कुल शरीर के 25 स्थानों की प्रतिलेखना एवं प्रमार्जना होती है ।
ध्यातव्य है कि उक्त पच्चीस प्रकार की शरीर प्रतिलेखना पुरुष के लिए होती है। स्त्रियों के गोप्य अवयव आवृत्त होने से उनके दोनों हाथ की 6, दोनों पाँव की 6, मुख की 3 ऐसे 15 स्थानों की ही प्रमार्जना होती है। मुखवस्त्रिका प्रतिलेखन एवं शरीर प्रतिलेखन की प्रायोगिक विधि अनुभवी के समीप या गुरुगम पूर्वक सीखनी चाहिए । यहाँ तो उस विधि का उल्लेख मात्र किया गया है। तुलना
चैतसिक विकारों का सम्बन्ध जिस अंग-प्रत्यंग से है अथवा जिन-जिन विकारों के जो-जो उद्गम स्थल हैं उन्हें अवरुद्ध करने हेतु शरीर प्रतिलेखना की जाती है। इसका सामान्य स्वरूप प्रवचनसारोद्धार एवं गुरुवंदनभाष्य में उपलब्ध होता है। इनमें बोल संख्या एवं नामों को लेकर पूर्ण साम्य है।
पात्र प्रतिलेखन विधि
जैन मुनि के आहार योग्य भाण्ड या बरतन को पात्र कहते हैं। श्वेताम्बर मुनि पात्र रखते हैं तथा दिगम्बर मुनि करपात्री होते हैं।
पात्र प्रतिलेखना काल - उत्तराध्ययनसूत्र एवं पंचवस्तुक के अनुसार दिन के प्रथम प्रहर के चतुर्थ भाग में पात्र आदि उपकरणों की प्रतिलेखना करनी चाहिए। इससे पूर्व अथवा पश्चात प्रतिलेखना करने से आज्ञा भंग, अनवस्था,