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164... जैन मुनि की आचार संहिता का सर्वाङ्गीण अध्ययन
मिश्र मोहनीय परिहरू - ये तीन बोल मन में बोलें।
दर्शन मोहनीय कर्म की तीनों प्रकृतियाँ दूर करने जैसी हैं अतः इन प्रकृतियों का चिन्तन करते हुए मुखवस्त्रिका को तीन बार खंखेरते हैं।
• फिर मुखवस्त्रिका को बायें हाथ पर रखते हुए उसके पार्श्व को मोड़कर दाहिने हाथ की तरफ के भाग को तीन बार खंखेरें, उस समय ( 5-6 ) कामराग, स्नेहराग, दृष्टिराग परिहरू - ये तीन बोल मन में बोलें।
काम आदि तीन प्रकार के राग त्याज्य हैं, अतः मुखवस्त्रिका को तीन बार खंखेरते हैं।
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पुरिम करने के पश्चात मुखवस्त्रिका को बायें हाथ पर रखकर दायें हाथ से इस प्रकार खींचें कि मुखवस्त्रिका के दो पट हो जायें ।
• वधूटक 13 - उसके बाद दाहिने हाथ की चार अंगुलियों के बीच दो या तीन वधूक करें।
• फिर दाहिने हाथ की चार अंगुलियों के तीन आंतरों के बीच में मुखवस्त्रिका को भरकर (वधूटक करके) नौ बार हल्के से खंखेरने की और नौ बार ग्रहण करने की क्रिया करें।
जैन शब्दावली में ग्रहण करने की क्रिया को अक्खोडा और खंखेरने की क्रिया को पक्खोडा कहते हैं । इस तरह नौ अक्खोडा और नौ पक्खोडा होते हैं। • अक्खोडा 14 – दायें हाथ की अंगुलियों से मुखवस्त्रिका का वधूटक कर दोनों जंघाओं के बीच रखे हुए बायें हाथ पर मुखवस्त्रिका को स्पर्श न करवाते हुए जैसे किसी को अन्दर ले जा रहे हों इस तरह हथेली से कोहनी तक तीन बार प्रमार्जन करें, उस समय ( 8 से 10 ) सुदेव, सुगुरु, सुधर्म आदरूं- ये तीन बोल बोलें।
• पक्खोडा 15 – फिर पूर्ववत दायें हाथ में ग्रहण की हुई मुखवस्त्रिका का बायें हाथ पर स्पर्श करवाते हुए जैसे किसी वस्तु को झाड़ रहे हों इस तरह कोहनी से हथेली तक तीन बार प्रमार्जन करें, उस समय ( 11 से 13 ) कुदेव, कुगुरु, कुधर्म परिहरूं- ये तीन बोल मन में कहें।
अक्खोडा - पुनः वधूटक पूर्वक दायें हाथ में ग्रहण की हुई मुखवस्त्रिका का बायें हाथ पर स्पर्श न करवाते हुए हथेली से कोहनी तक तीन बार प्रमार्जना करें, उस समय (14-16) ज्ञान, दर्शन, चारित्र आदरूं- इन