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152... जैन मुनि की आचार संहिता का सर्वाङ्गीण अध्ययन
एवं प्रयोजनरहित उपधि का उपयोग करने पर आज्ञाभंग, अनवस्था, मिथ्यात्व, चारित्र विराधना आदि दोष लगते हैं।
सामान्यतया जो साधक बाह्य रूप से उपधि रखते हुए भी निर्ममत्व बुद्धि पूर्वक उसका उपयोग करता है तो वह स्वाध्याय, ध्यान में होने वाली क्षति से बच जाता है। ऐसा नि:संग मुनि अभिलाषा से मुक्त होकर मानसिक संक्लेश को भी प्राप्त नहीं होता है।
सन्दर्भ-सूची
1. उपधीयते संगृह्यते इति उपधि। आचारांग शीलाकांचार्य टीका, 1/4/1/ पत्र 179 2. उपदधातीत्युपधिः । उप-सामीप्येन संयमं धारयति दधाति पोषयति चेत्युपधिः । अभिधानराजेन्द्रकोश, भा. 2, पृ. 1087
3. उपक्रियते अनेन इति उपकरण। वही, पृ. 905
4. पाइअसद्दमहण्णवो, पृ. 174
5. उवही उवग्गहे संगहे य, तह पग्गहुग्गहे चेव। भंडग उवगरणे या, करणेवि य हुंति एगट्ठा ||
6. ओघनिर्युक्ति, 667
7. (क) वही, गा. 671
ओघनियुक्ति, 666
(ख) पंचवस्तुक, गा. 771 8. पत्तं पत्ताबंधो, पायट्टवणं च पायकेसरिया । पडलाइं रयत्ताणं, च गुच्छओ पायनिज्जोगो ।।
तिन्नेव य पच्छागा, रयहरणं चेव होइ मुहपत्ती । एसो दुवालसविहो, उवही जिणकप्पियाणं तु ॥ (क) ओघनियुक्ति, 668-669 (ख) पंचवस्तुक, 772-773
चोलपट्टो । थेरकप्पम्मि ||
9. एए चेव दुवालस, मत्तग अइरेग एसो चउद्दसविहो, उवही पुण
(क) ओघनिर्युक्ति, 670 (ख) पंचवस्तुक, 779
10. उग्गहणंतगपट्टो, अद्धोरुग चलणिया य बोद्धव्वा । अब्धिंतर बाहिरियं, सणियं तह कंचुगे चेव ॥
उक्कच्छिय वेकच्छी, संघाडी चेव खंधकरणीय ।