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अवग्रह सम्बन्धी विधि-नियम...107
श्रमणाचार की मर्यादा के अनुसार मुनि सामान्य स्थिति में तथा अन्य उपयुक्त स्थान उपलब्ध होने की स्थिति में धर्मशाला आदि सार्वजनिक अथवा सर्वजन संसक्त स्थल पर न रुकें। यदि किसी कारणवश रुकना पड़े तो निम्न निर्देशों का ख्याल रखें
• सर्वप्रथम याचना करते समय उस स्वामी या अधिष्ठाता को काल मर्यादा और क्षेत्र मर्यादा के विषय में स्पष्ट सूचना कर दें।
• उन्हें स्पष्ट रूप से कहें कि 'जितने समय के लिए और जितना स्थान तुम दोगे उतने ही समय तक और उतने ही स्थान में हम रहेंगे। हमारे साधर्मिक साधु आयेंगे तो वे भी तुम्हारे द्वारा अनुमत समय तक और अनुज्ञा क्षेत्र में ही ठहरेंगे। उसके बाद हम सब विहार कर जायेंगे।' इस प्रकार काल, क्षेत्र और साधर्मिक संख्या की मर्यादा का स्पष्टीकरण कर देने से अवग्रह दाता और अवग्रह ग्रहण करने वाला दोनों में नि:शंकता की स्थिति आ जाती है। अन्यथा गृहस्थ के मन में आशंका हो सकती है कि ये साधु कहीं यहीं न जम जायें, ये न जाने कितना स्थान लेंगे?' इस तरह की शंका से उसके मन में साधुओं के प्रति अश्रद्धा हो सकती है और वह स्थान देने में कतरा सकता है। इसलिए अवग्रह की आज्ञा लेते समय ही गृहस्थ को पूरी तरह से आश्वस्त कर दें। यदि गृहपति स्वयं यह कह दे कि 'आपकी इच्छा हो उतनी अवधि तक और उतने क्षेत्र में रह सकते हो' तब साधु कल्प मर्यादा का विचार करते हुए वहाँ रहे।
. सार्वजनिक स्थल पर रहते हुए मुनि को यह ध्यान रखना आवश्यक है कि यदि वहाँ पहले से ही शाक्यादि श्रमण ठहरे हुए हों तो उनके साथ शिष्टाचार का व्यवहार करें। उन श्रमणों के दंड, छत्र आदि उपकरण और उनका सामान पड़ा हो तो उसे बाहर न डालें, उनके सामान को इधर-उधर न करें। यदि वे सोये हुए हों तो उन्हें शोरगुल करके न उठायें, ऐसा कोई भी व्यवहार न करें जो उनके लिए अप्रीतिकारक हो। आचारांगसूत्र के उल्लेखानुसार श्रमण को पूर्व से ठहरे हुए संन्यासियों के साथ मृदु, उदार, शिष्ट एवं सौजन्यपूर्ण व्यवहार करना चाहिए।
. मालिक को अप्रीति और अरुचि न हो उस तरह से मल-मूत्र आदि का परिष्ठापन करना चाहिए। इसी तरह के अन्य कर्तव्यों का भी पालन करना चाहिए, जिससे किसी को कष्ट या अप्रीति न हों।'