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106... जैन मुनि की आचार संहिता का सर्वाङ्गीण अध्ययन
सकता। अतः किसी भी अवग्रह को एकांतत: प्राधान्यता प्राप्त नहीं है ।
प्रथम चार अवग्रहों में पूर्व और उत्तर अनुज्ञा की भजना (विकल्प) है तथा अंतिम साधर्मिक अवग्रह में साधर्मिक की ही अनुज्ञा लेनी होती है। इससे पूर्व अवग्रहों की अनुज्ञा लेने का नियम नहीं है, क्योंकि पूर्वागत साधुओं द्वारा वह स्थान अनुज्ञापित होता है। अत: बाद में आने वाले साधु के द्वारा पुनः अनुज्ञा लेने की जरूरत नहीं रहती है। यहाँ यह भी ज्ञातव्य है कि जिस दिन स्थानीय श्रमण पूर्वगृहीत स्थान को छोड़कर विहार कर रहे हों, उसी दिन दूसरे श्रमण आ जाएं तो उसी पूर्व गृहीत आज्ञा से यथालंदकाल (शास्त्र निर्धारित समय) तक वहाँ रह सकते हैं। यदि उपयोग में आने जैसा कोई अचित्त उपकरण उपाश्रय में हो तो उसका भी उसी पूर्व की आज्ञा से उपयोग किया जा सकता है । 4 कौनसा अवग्रह किस योग पूर्वक ?
बृहत्कल्पचूर्णि में अवग्रह की चर्चा करते हुए लिखा गया है कि देवेन्द्र और राजा के अवग्रह की अनुज्ञा मन से ली जाती है, गृहपति के अवग्रह की अनुज्ञा मन से अथवा वचन से ली जाती है तथा शय्यातर और साधर्मिक के अवग्रह की अनुमति नियमतः वचन से ली जाती है, जैसे शय्या, पात्र, शैक्ष आदि के ग्रहण की हमें अनुमति दें।
अवग्रह की क्षेत्र सीमा
बृहत्कल्प टीका के अनुसार साधु और साध्वियाँ किसी भी स्थान सम्बन्धी अवग्रह चारों दिशाओं एवं चारों विदिशाओं में पाँच कोश की मर्यादा तक ग्रहण कर सकते हैं।
मूल गाँव से प्रत्येक दिशा में ढाई कोस का अवग्रह होता है । वह पूर्व - पश्चिम और उत्तर-दक्षिण के हिसाब से पाँच कोस का हो जाता है अथवा जाकर पुनः आने पर एक दिशा में भी पाँच कोस का अवग्रह जानना चाहिए | " अवग्रह सम्बन्धी कुछ निर्देश
किसी स्थान पर रुकने के लिए मालिक की अनुमति ग्रहण कर रहे हों तो मुनि को उस समय यह ध्यान रखना जरूरी है कि वह स्थल वैयक्तिक है या सार्वजनिक? यदि व्यक्तिगत स्थल है तो किसी तरह का उपद्रव खड़ा होने की संभावना अल्प रहती है, परन्तु सार्वजनिक हो तो बहुत-सी सावधानियाँ अपेक्षित हो जाती हैं।