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98...जैन मुनि की आचार संहिता का सर्वाङ्गीण अध्ययन
7-12. पृथ्वीकाय, अप्काय, तेउकाय, वायुकाय, वनस्पतिकाय और त्रसकाय- इन षड् जीवनिकायों के प्रति संयम रखना।52
13. अकल्पवर्जन- मुनि जीवन के लिए आवश्यक 1. आहार-पानी 2. शय्या (आवास स्थान) 3. वस्त्र और 4. पात्र। ये चारों पदार्थ अकल्पनीय हों तो उसे ग्रहण नहीं करना, यह तेरहवाँ स्थान है।53
दशवैकालिक चूर्णि में अकल्प दो प्रकार के बताए गए हैं- 1. शैक्ष स्थापना अकल्प 2. अकल्पस्थापना अकल्प। जिसने पिण्डनियुक्ति का अध्ययन न किया हो, उसके द्वारा लाया हुआ आहार पानी, जिसने शय्यैषणा (आचारचूला-2) का अध्ययन न किया हो, उसके द्वारा याचित वसति (उपाश्रयादि) और जिसने वस्त्रैषणा (आचारचूला-5) का अध्ययन न किया हो, उसके द्वारा आनीत वस्त्र, वर्षाऋतु में किसी को प्रव्रजित करना तथा ऋतुबद्ध काल में अयोग्य को प्रव्रजित करना, यह शैक्ष स्थापना अकल्प है। अकल्पनीय पिण्डादि ग्रहण करना अकल्पस्थापना अकल्प कहलाता है।54
14. गृहस्थपात्र वर्जन- गृहस्थ के कांसे के कटोरे, कांसे के पात्र अथवा कुण्डे के आकार वाले कांसे के बर्तन में आहार नहीं करना, यह चौदहवाँ आचार है।55
साधु के लिए गृहस्थ के पात्र में भोजन करने का निषेध इसलिए है कि वह साध-साध्वी को अपना बर्तन देने से पहले या लौटाने के पश्चात संचित्त जल से धो सकता है और धोया हुआ पानी जहाँ-तहाँ अविवेक से डालने पर त्रस जीवों की उत्पत्ति और विराधना होती है। इससे पश्चात्कर्म और पुर:कर्म नामक एषणा दोष भी लग सकता है। ___ 15. पर्यंक वर्जन- जैन मुनि आसंदी (भद्रासन), पलंग, माचा, (खाट), आसालक (जिसमें सहारा हो, ऐसा सुखकारक आसन, वर्तमान में इसे आराम कुर्सी आदि कहते हैं) पर नहीं बैठे और न शयन करे। किसी विशेष परिस्थिति में अथवा रुग्णावस्था आदि कारणों से इन साधनों का प्रयोग करना आवश्यक हो जाए तो सम्यक् प्रकार से प्रतिलेखन करके उनका उपयोग करे।56
पर्यंक आदि पर बैठने-सोने का निषेध इसलिए किया गया है कि शयनआसन आदि पोले छिद्र वाले अथवा इनके विभाग अप्रकाशकर होते हैं, अत: इनमें रहने वाले सूक्ष्म जीवों का भली भांति प्रतिलेखन करना दुःशक्य है।