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अर्थ भी हैं
श्रमण का स्वरूप एवं उसके विविध पक्ष...41
• अशुभ विषयों से निवृत्त होना गुप्ति है । 142
• सम्यक रूप से मन, वचन और काय योग का निग्रह करना गुप्ति है । 143 आगमोक्त विधि से प्रवृत्ति करना तथा उन्मार्ग से निवृत्त होना गुप्ति है। 144
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• मोक्षाभिलाषी आत्मा के द्वारा आत्मरक्षा के लिए अशुभ योगों को रोकना गुप्ति है। 145
अशुभ प्रवृत्ति को रोकने के तीन साधन इस प्रकार हैं
1. मनोगुप्ति - संरम्भ ( अशुभ संकल्प ), समारम्भ ( परपीड़ाकारी प्रवृत्ति) और आरम्भ (पर प्राणापहारी प्रवृत्ति) सम्बन्धी संकल्प - विकल्प नहीं करना, मध्यस्थ भाव रखना मनोगुप्ति है। 146
लाभ - मनोगुप्तता से जीव की एकाग्रता बढ़ती है। एकाग्र चित्तवाला जीव अशुभ संकल्पों से मन की रक्षा करने वाला और संयम की आराधना करने वाला होता है। 147
2. वचन गुप्ति - संरम्भ, समारम्भ और आरम्भ सम्बन्धी अशुभ वचन का त्याग करना अथवा विकथा नहीं करना वचन गुप्ति है। 148
लाभ-वचन गुप्ति के प्रयोग से निर्विचार भाव का उदय होता है, निर्विचारता से चित्त एकाग्र होता है और चित्त की एकाग्रता से आध्यात्मिक गुणों का विकास होता है। 149
3. कायगुप्ति - संरम्भ, समारम्भ और आरम्भ सम्बन्धी कार्यों के लिए खड़ा होना, उठना, चलना आदि कायिक प्रवृत्ति नहीं करना अथवा अशुभ कायिक व्यापार का त्याग करना कायगुप्ति है । 150
लाभ - काय गुप्ति से संवर होता है तथा संवर के द्वारा कायिक स्थिरता में अभिवृद्धि होती है। फलत: वह जीव पापकर्म के आने के द्वारों का निरोध कर देता है।151
तुलना - मन, वचन और काया की अकुशल प्रवृत्तियों का निग्रह करना और उनका कुशल प्रवृत्तियों में संयोजन करना गुप्ति है। यह विवेचन सर्वप्रथम स्थानांगसूत्र152 में देखा जाता है। इसमें गुप्तियों के नामनिर्देश मात्र हैं। इस विषय में विस्तृत चर्चा उत्तराध्ययनसूत्र में की गई है। 153 यदि परवर्ती साहित्य का