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नन्दिरचना विधि का मौलिक अनुसंधान... 31
बैठते हैं। उनके पीछे-पीछे क्रमशः केवली, मनःपर्यवज्ञानी, अवधिज्ञानी, चौदहपूर्वी, ऋद्धिसम्पन्न मुनि तथा अन्य सब मुनि बैठते हैं। उनके पीछे वैमानिक देवियाँ और साध्वियाँ खड़ी रहती हैं।
तीर्थङ्कर के दक्षिण-पश्चिम दिशा (नैऋत्यकोण) में क्रमशः भवनपति, ज्योतिष्क और व्यन्तर देवों की देवियाँ खड़ी रहती हैं। उत्तर-पश्चिम दिशा (वायव्यकोण) में भवनपति, ज्योतिष और व्यन्तरदेव खड़े रहते हैं। उत्तर - र-पूर्व दिशा (ईशानकोण) में वैमानिकदेव, मनुष्य और स्त्रियाँ खड़ी रहती हैं। प्रथम परकोटे में तीर्थङ्कर के चारों दिशाओं में साधु-साध्वी, श्रावक-श्राविका, चार प्रकार के देव एवं चार प्रकार की देवियाँ ऐसे कुल बारह प्रकार की पर्षदा (सभा) उपस्थित रहती है।
दूसरे परकोटे में तिर्यञ्च (पशु-पक्षी) होते हैं। तीसरे परकोटे में यानवाहन रहते हैं। परकोटे के बाहर देव, मनुष्य, तिर्यञ्च तीनों गति के जीव हो सकते हैं। 11
इस प्रकार समवसरण के तीनों परकोटे ऊपर से नीचे की ओर क्रमश: अधिक विस्तार वाले होते हैं तथा यह रचना देवकृत होती है।
दिगम्बर परम्परानुमत समवसरण का स्वरूप निम्न प्रकार है 12
समवसरण की भूमि स्वाभाविक भूतल से एक हाथ ऊँची रहती है। यह भूमि देश काल के अनुसार बारह योजन से लेकर एक योजन तक विस्तृत होती है। समवसरण स्वयं इन्द्र नीलमणि से निर्मित एवं उसका बाह्य भाग दर्पण तल के समान निर्मल होता है। उसमें 1. चैत्य - प्रासाद भूमि, 2. जल - खातिका भूमि, 3. लतावनभूमि, 4. उपवनभूमि, 5. ध्वजभूमि, 6. कल्पवृक्षभूमि, 7. भवनभूमि, 8. श्रीमण्डपभूमि, 9. प्रथम पीठ, 10. द्वितीय पीठ तथा 11. तृतीय पीठ भूमि इस प्रकार कुल ग्यारह भूमियाँ होती हैं।
समवसरण के बाह्य भाग में सबसे पहले धूलिसाल कोट बना रहता है। यह रत्नों के चूर्णो से निर्मित बहुरंगी और वलयाकार होता है। इसके चारों ओर स्वर्णमयी खम्भों वाले चार तोरण द्वार होते हैं। इन द्वारों के बाहर मंगलद्रव्य, नवनिधि, धूप-घट आदि युक्त पुतलियाँ स्थित रहती हैं। प्रत्येक द्वार के मध्य दोनों बाजुओं में एक-एक नाट्यशाला होती है। इनमें बत्तीस-बत्तीस देवांगनाएँ नृत्य करती रहती हैं। ज्योतिषी देव इन द्वारों की रक्षा करते हैं ।