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नन्दिरचना विधि का मौलिक अनुसंधान... 29 युग तक के प्राप्त ग्रन्थों में पूर्वोक्त पंचाशक प्रकरण एवं विधिमार्गप्रपा नन्दीरचना-विधि का विस्तृत निरूपण करते हैं। उनमें भी यह कहना अतिशयोक्ति पूर्ण नहीं होगा कि इस सम्बन्ध में पंचाशकप्रकरण प्रथम और विधिमार्गप्रपा अन्तिम ग्रन्थ है। ____हाँ! परवर्तीकाल के कुछ संकलित एवं संग्रहीत ग्रन्थों में यह विधि अवश्य उल्लिखित है, परन्तु वह उक्त ग्रन्थों के आधार पर ही वर्णित है। अत: यह मानना होगा कि विक्रम की 8वीं शती के कुछ पूर्व समय से ही यह क्रिया अस्तित्व में आयी है। सम्भवत: 8वीं शती के पूर्वकाल में व्रतादि अनुष्ठान जिनालय के सभामण्डप (मूल गंभारा का बाह्य भाग) में किये जाते होंगे। उस स्थिति में पृथक् नन्दीरचना की आवश्यकता नहीं भी रहती है।
तदनन्तर देश-कालगत स्थितियों के परिवर्तन से दीक्षादि व्रतों का व्यावहारिक मूल्य एवं जनसमुदाय की उपस्थिति बढ़ने लगी, तब सभामण्डप के स्थान पर विशालमण्डप की कल्पना उभरकर सामने आई और उस हालात में नन्दीरचना का होना परमावश्यक हो गया।
इस प्रकार हम देखते हैं कि नन्दीरचना परिस्थिति सापेक्ष में की जाती है सार्वकालिक कृत्य नहीं है। यद्यपि वर्तमान की श्वेताम्बर मूर्तिपूजक-परम्परा में व्रतादि अनुष्ठान हेतु सभामण्डप हो या विशाल मण्डप नन्दीरचना होती ही है। समवसरण और नन्दीरचना में मौलिक अन्तर यही है कि एक देवकृत रचना है
और दूसरी मनुष्यकृत। एक में साक्षात तीर्थङ्कर आसीन होते हैं और दूसरे में तीर्थङ्कर परमात्मा का प्रतिबिम्ब स्थापित किया जाता है। समवसरण : एक परिचय
समवसरण का अर्थ है - तीर्थङ्कर परमात्मा का उपदेश स्थल। विद्वद् मुनियों के अनुसार जिनसभा, जिनपुर और जिनावास शब्द भी समवसरण अर्थ के वाचक हैं। जिनेश्वर परमात्मा जिस स्थान पर विराजते हैं, वह मूलतः समवसरण के नाम से जाना जाता है।
समवसरण का मतलब एक ऐसा सभा भवन है, जिसमें विराजकर तीर्थङ्कर परमात्मा मोक्षमार्ग का उपदेश देते हैं। यह एक ऐसी धर्मसभा है, जिसकी तुलना लोक की किसी अन्य सभा से नहीं की जा सकती। इसमें देव-दानव, मानव, पशु-पक्षी सभी समान रूप से बैठकर धर्म श्रवण के अधिकारी बनते हैं, यही