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ब्रह्मचर्य व्रतग्रहण विधि का मार्मिक विश्लेषण ... 7 7. स्वादिष्ट पौष्टिक आहार न करे। 8. मात्रा से अधिक आहार- पानी का सेवन न करे। 9. शरीर की विभूषा (शृङ्गार) न करे और 10. पंचेन्द्रिय विषयों में आसक्त न बने।
दसवाँ समाधिस्थान ब्रह्मचर्य की नौ गुप्तियों में आठवें क्रम पर है। इसके नवमें स्थान पर नौवीं गुप्ति-साता और सुख में प्रतिबद्ध नहीं होना है तथा पांचवें समाधिस्थान का नौ गुप्तियों में अभाव है।
दिगम्बर परम्परा के मुलाचार में भी शीलविराधना के दस कारणों का उल्लेख मिलता है, जो उत्तराध्ययनसूत्र में वर्णित दस समाधिस्थान से किञ्चित् साम्य और किञ्चित् वैभिन्य रखता है। स्पष्टीकरण हेतु उनके नाम ये हैं- 1. स्त्री संसर्ग 2. प्रणीतरस भोजन 3. गन्धमाल्यसंस्पर्श 4. शयनासनगृद्धि 5. भूषणमण्डन 6. गीतवाद्यादि की अभिलाषा 7. अर्थ सम्प्रयोजन 8. कुशीलसंसर्ग 9. राजसेवा और 10. रात्रिसंचरण।' अनगारधर्मामृत में भी प्रकारान्तर से शील रक्षा के दस नियम बताये गये हैं।
इस प्रकार आगमिक एवं आगमेतर साहित्य में ब्रह्मचारी के लिए आवश्यक निर्देशों का विवरण स्पष्टत: उपलब्ध होता है। किन्तु किसी गृहस्थ को पूर्ण रूप से ब्रह्मचर्यव्रत अंगीकार करना हो, तो उसकी समुचित विधि आचारदिनकर में उपलब्ध होती है। यद्यपि श्रावक के बारह व्रतों में स्वपत्नीसन्तोषव्रत के रूप में ब्रह्मचर्यव्रत का आंशिक समावेश हो ही जाता है। इसमें वह स्वपत्नी को छोड़कर शेष स्त्रियों से यौन सम्बन्ध का परित्याग करता है जबकि प्रस्तुत व्रत में वह स्वपत्नी के साथ भी यौन सम्बन्धों का परित्याग कर देता है, अत: इसकी विधि पृथक रूप से कही गयी है।
यह व्रतारोपण संस्कार वर्तमान परम्परा में भी प्रवर्तित है, किन्तु आचार्य वर्धमानसूरि ने ब्रह्मचारी के लिए जिन नियमों का उल्लेख किया है, उनमें से कुछ वर्तमान समाचारी में प्रचलित नहीं हैं। आचार्य वर्धमानसूरि के अनुसार ब्रह्मचर्यव्रत स्वीकार करने वाला गृहस्थ तीन वर्ष तक लंगोटी, उत्तरीय एवं शिखा धारण करके रहे। जबकि वर्तमान में इस व्रत को प्राय: यावज्जीवन के लिए स्वीकार करते हैं। साथ ही लंगोटी एवं शिखा धारण आदि की भी परम्परा नहीं देखी जाती है। सामान्यत: इस व्रत प्रतिज्ञा के पश्चात साधक अधिक से अधिक धर्माराधना करता हुआ सात्विक जीवनयापन करता है। इस प्रकार