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जैन मुनि के व्रतारोपण की त्रैकालिक उपयोगिता नव्य युग के... xiv विरुद्ध प्रतिभासित होते हैं परन्तु देश-काल के अनुसार समयज्ञ गीतार्थ गुरुओं द्वारा उनमें परिवर्तन होता रहा है और उन नियमों के पीछे कल्याण एवं आध्यात्मिक उत्कर्ष की भावना इस प्रकार समाहित है कि साधकों को स्वतः आत्मिक आनंद की आन्तरिक अनुभूति हो जाती है।
कुछ लोग बाल दीक्षा, चन, भिक्षाटन आदि नियमों का वर्तमान समय को देखते हुए विरोध करते हैं। किसी अपेक्षा वे सही हैं किन्तु इस बौद्धिक युग में जहाँ आठ-दस वर्ष का बालक कम्प्यूटर, मोबाईल और इंटरनेट के माध्यम से देश-विदेश की जानकारी रखता है। ऐसी स्थिति में यदि कोई बालक स्वेच्छा से संयम मार्ग पर प्रवृत्त हो तो उसे दीक्षित करने में क्या हर्ज और उसमें भी गुरु योग्य आत्मा को ही दीक्षित करते हैं। कई लोग कहते हैं कि जिन्होंने सुख भोगा ही नहीं वे उसका त्याग करें तो क्या श्रेष्ठता? अरे सुज्ञजनों! आत्मा में तो भोग के संस्कार अनादिकाल से रहे हुए हैं फिर सागर का पानी जिस प्रकार प्यास बुझाने में सक्षम नहीं है वैसे ही सांसारिक सुख कभी तृप्ति देने वाले नहीं है। कुछ लोगों का कहना है कि संयम मार्ग पर आरूढ़ बालक के मन में सांसारिक वासना के भाव उत्पन्न हो जाये तो? इसका जवाब यह है कि मन तो चंचल है। उसको वश में रखना चाहें तो रखा जा सकता है। प्रव्रज्या तो वैसे भी मन नियंत्रण की ही साधना है।
संयमी जीवन का पालन करते हुए विहार आदि में बढ़ते एक्सीडेंट तथा त्वरित साधनों के युग में कई लोग साधु-साध्वियों द्वारा वाहन प्रयोग किए जाने का पक्ष रखते हैं तो कुछ शासन प्रभावना हेतु मोबाईल, कम्प्यूटर आदि के प्रयोग की सलाह देते हैं। किसी अपेक्षा से उनके सुझाव सही हो सकते हैं, परन्तु संयमी जीवन का मुख्य ध्येय आत्म कल्याण है। उसके पश्चात समाज कल्याण की प्रधानता है। जहाँ तक शासन सेवा आदि का सवाल है तो जैसे तेरापंथ में श्रमण-श्रमणी की परम्परा है जिन्हें कुछ विशेष छूट होती है, वैसा अपवाद मार्ग निकाला जा सकता है।
कुछ महानुभाव Laptop & Mobile के विषय में यह तर्क भी देते हैं कि समाचार संप्रेषण आदि के कार्य आप किसी ओर से करवाते हो तो उसमें समय की बर्बादी, राशि खर्च एवं बौद्धिक ऊर्जा का अधिक व्यय होता है और दोष भी उतना ही लगता है तब क्यों न साधु-साध्वियों को स्वयं ही यह सब कर लेना चाहिए। उनसे कहना है कि आपके मत समर्थन में क्रियात्मक दोष के