________________
xliv...जैन मुनि के व्रतारोपण की त्रैकालिक उपयोगिता नव्य युग के.....
यदि तुलनात्मक दृष्टि से विचार किया जाए तो अन्य दर्शनों में भी आध्यात्मिक विकास हेतु त्रिविध साधना मार्ग का ही प्रतिपादन मिलता है। जैसेबौद्ध दर्शन में शील, समाधि और प्रज्ञा के रूप में तथा गीता में ज्ञानयोग, भक्तियोग एवं कर्मयोग के रूप में त्रिविध साधना मार्ग के उल्लेख हैं। पाश्चात्य परम्परा (साइकोलाजी एण्ड मोरल्स-पृ. 180, उद्धृत चरणानुयोग प्रस्तावना पृ. 12) में तीन नैतिक आदेश उपलब्ध होते हैं- 1. स्वयं को जानो 2. स्वयं को स्वीकार करो 3. स्वयं ही बन जाओ। पाश्चात्य चिन्तन के ये तीन आदेश जैन परम्परा के त्रिविध साधनामार्ग के समकक्ष ही हैं। आत्मज्ञान में सम्यक ज्ञान का तत्त्व, आत्म स्वीकृति में सम्यक श्रद्धा का तत्त्व और आत्म निर्माण में सम्यक चारित्र का तत्त्व समाहित है।
इस प्रकार त्रिविध साधना मार्ग के सम्बन्ध में जैन, बौद्ध और वैदिक परम्पराएँ ही नहीं, पाश्चात्य विचारक भी एकमत हैं अत: आत्म साधना की पूर्णता त्रिविध साधना पथ के सदाचरण में ही सम्भव है। आज के प्रगतिवादी संसाधनजन्य युग में जहाँ आए दिन नित नए साधनों का आविष्कार हो रहा है ऐसी स्थिति में जिनधर्म उपदिष्ट त्याग एवं निवृत्तिमय संयम मार्ग कितना उपादेय, प्रासंगिक एवं लोक व्यवहार में आचरणीय है, यह एक मननीय विषय है? जब तक जीव संसार में परिभ्रमण कर रहा है शोक, चिन्ता आदि समस्याएँ तो कदम-कदम पर आती रहेंगी। उनमें बहिरात्मा व्याकुल होकर नये कर्मों का बंध कर लेती है जबकि दीक्षा अंगीकार करने वाला साधक कष्टों को स्वीकार करता है तथा विभिन्न परीषहों को सहन करता हुआ स्वयं में समत्व वृत्ति का पोषण करता है।
वर्तमान में वैयक्तिक स्तर से लेकर राष्ट्रीय-अन्तरराष्ट्रीय स्तर तक जितनी आपदाओं एवं समस्याओं का सामना कर रहे हैं उसका मुख्य कारण पदार्थों और क्षेत्रों का अति उपयोग एवं अनियंत्रण है। संयम और नियंत्रण यह व्यवस्था का मूल होता है। आज की भोगवादी संस्कृति में 'नियंत्रण' शब्द प्राय: लुप्त हो चुका है। अब तो जहाँ-तहाँ अभिवृद्धि पर ही बल दिया जा रहा है जिसके दुष्प्रभाव हम सभी के समक्ष स्पष्ट हैं।
___ 'संयम मार्ग कष्टदायक है' ऐसा कथन भी लोक प्रवाह के विरुद्ध है। क्योंकि चेतना के अंतिम लक्ष्य सिद्धि में यही मार्ग साध्य है। वर्तमान परिस्थितियों में संयमी जीवन के कुछ नियम अवश्य दुःसाध्य या लोक व्यवहार