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254...जैन मुनि के व्रतारोपण की त्रैकालिक उपयोगिता एवं कछ नियमोपनियमों का पालन करना आवश्यक माना गया है उसी प्रकार वैदिक परम्परा में भी संन्यासी के लिए अहिंसा आदि पंचयम का स्वीकार करना जरूरी कहा गया है।
इस सम्बन्ध में कुछ गहनता से विचार करें तो जहाँ तक अहिंसा-महाव्रत का प्रश्न है, जैन और वैदिक दोनों ही परम्पराएँ त्रस और स्थावर की हिंसा को निषिद्ध मानती हैं। फिर भी वैदिक परम्परा में जल, अग्नि, वायु आदि में जीवन का अभाव माना गया है। इसलिए उनकी हिंसा से बचने का कोई निर्देश उपलब्ध नहीं है।
सत्य महाव्रत के सन्दर्भ में वैदिक-परम्परा में भी काफी गहराई से विचार किया गया है। इसमें प्रिय-सत्य बोलने का विधान है और अप्रिय-सत्य बोलने का निषेध है। महाभारत के अनुसार सत्य बोलना अच्छा है; किन्तु सत्य भी ऐसा बोलना चाहिए, जिससे सब प्राणियों का हित हो।220 ब्रह्मचर्य महाव्रत के सन्दर्भ में भी वैदिक-परम्परा में स्वीकृत मैथुन के आठ अंग जैन-परम्परा में बतायी गयी ब्रह्मचर्य की नव बाड़ों से काफी अधिक निकटता रखते हैं।
इस प्रकार पंचमहाव्रत को लेकर जैन-बौद्ध और वैदिक-परम्परा का दृष्टिकोण काफी समान है। उपसंहार
जैन अवधारणा में अहिंसा-सत्य-अचौर्य-ब्रह्मचर्य-अपरिग्रह इन पांच नियमों को यावज्जीवन के लिए स्वीकार करना महाव्रत कहलाता है, इसी का अपरनाम उपस्थापना है। इसे छेदोपस्थापनीय चारित्र भी कहते हैं। यह व्रतारोपण संस्कार नवदीक्षित मुनि को श्रमण समुदाय में प्रवेश देने हेतु एवं सामायिक चारित्र से छेदोपस्थापना चारित्र अंगीकार करवाने हेतु किया जाता है। जैन मुनि की संयम पर्याय उपस्थापना के बाद से ही मानी जाती है।
जैन ग्रन्थों में उपस्थापना की भूमिका को प्राप्त करने वाले मुनि के लिए कुछ सूत्रों का विधिपूर्वक अध्ययन किया जाना आवश्यक माना गया है। वे सूत्र दैनिक आचार विधि एवं निर्दोष संयम पालन की विधि से सम्बन्धित हैं। यह परिपाटी श्वेताम्बर सम्प्रदायों में ही देखी जाती है।
आचारदिनकर (पृ. 85) के अध्ययन से ज्ञात होता है कि अरिहन्त परमात्मा सामायिक चारित्र ही ग्रहण करते हैं। पंचमहाव्रत रूप छेदोपस्थापना