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________________ उपस्थापना (पंचमहाव्रत आरोपण) विधि का रहस्यमयी अन्वेषण... 235 पर वनमाला को इससे संतोष नहीं हुआ। उसने कहा - कि अगर “रात्रिभोजन का पाप लगे” ऐसा कहें तो मैं जाने की आज्ञा देती हूँ अन्यथा नहीं। तब उन्हें आगे बढ़ने की इजाजत दी। 170 यहाँ मार्मिक बात यह है कि प्राणातिपात आदि पापों से जो दुर्गति होती है उससे भी रात्रिभोजन के पाप से बहुत भयंकर दुर्गति होती है। रात्रि के दोषों को जानकर जो भव्यात्मा सूर्योदय और सूर्यास्त की दो - दो घड़ी छोड़कर भोजन करते हैं (सूर्योदय के बाद दो घड़ी और सूर्यास्त के पहले दो घड़ी छोड़कर) वे पुण्यशाली हैं। 171 पूर्वाचार्यों ने कहा है कि चिड़ी कमेड़ी कागला, रात चुगन नहिं जाय । नरदेहधारी मानवा, रात पड्या क्यूँ खाय ।। रात में फिरे और खावे, मनुज वे निशिचर कहलावे । निशाचर रावण के भाई, नहीं रघुवर के अनुयायी ।। आज हमें जैनत्व की मूल गरिमा को वापस दृढ़ता से टिकाए रखना अत्यन्त आवश्यक है। कई भाई - बहन तर्क देते हैं कि कार्य की व्यस्तता एवं महानगरों में दूरियों के कारण रात्रिभोजन त्याग नहीं निभ सकता, यदि गंभीरता से मानसिकता बनायें तो जैसे विदेशी भाई अपनी पानी की बोतल साथ रखते हैं, हम यात्रा में अपना भोजन साथ रखते हैं, ठीक इसी प्रकार दूर जाने वाले कामकाजी भाई-बहनों को शाम का भोजन अपने साथ ले जाना चाहिये। आजकल तो ऐसे साधन उपलब्ध हैं जिससे लम्बे समय तक भोजन गर्म व ताजा बना रह सकता है। कई भाई-बहन रात्रिभोजन का त्याग तो करते हैं, लेकिन कुछ दिन छूट रखते हैं तथा उन दिनों का उपयोग सामूहिक भोज में करते हैं, यह बिल्कुल अनुचित है। हमें चाहिये कि सामूहिक भोज में तो किसी भी मूल्य पर रात को भोजन नहीं करें, ताकि दूसरों पर गलत छाप नहीं पड़े और जैनत्व बदनाम न हो। सार रूप में कहा जा सकता है कि रात्रिभोजन त्याग से आहारसंज्ञा पर नियन्त्रण होता है, लोभकषाय पर विजय प्राप्त होती है, भावनात्मक जगत निर्मल बनता है और रात्रिभुक्त त्यागी सद्गति का सर्जन करते हुए चरम लक्ष्य को पा लेता है। यही रात्रिभोजनविरणम- व्रत की प्रासंगिक उपादेयता है ।
SR No.006241
Book TitleJain Muni Ke Vrataropan Ki Traikalik Upayogita Navyayug ke Sandarbh Me
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSaumyagunashreeji
PublisherPrachya Vidyapith
Publication Year2014
Total Pages344
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size28 MB
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